सोमवार, 31 मई 2010

वर्धा विवि के सलाहकार नहीं हैं अजित राय: वीसी सूत्र


अजित राय के तीसरे चीयर्स का स्‍वाद भी बिगड़ गया है। महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्री हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय ने इस खबर से इनकार किया है कि अजित राय को उन्‍होंने सलाहकार नियुक्‍त किया है। राय के एक करीबी मित्र के हवाले से मिली खबर के मुताबिक अजित राय के कथित एसएमएस, जिसमें अजित राय ने वर्धा विवि के कुलपति के सलाहकार होने की खबर प्रसारित की थी, के बारे में जानकारी मिलने के बाद उन्‍होंने अजित राय को इसके लिए फटकार भी लगायी। जैसा कि वीएन राय के करीबी मित्र ने बताया, विश्‍वविद्यालय में ऐसा कोई पद है ही नहीं। न ही कुलपति के अधिकार में इस तरह के पद का सृजन करना है। और अगर ऐसा होता भी, तो वीएन राय के मुताबिक, उन्‍हें किसी सलाहाकार की जरूरत नहीं है। जरूरत होगी भी तो वे अजित राय जैसे अयोग्‍य लोगों को कतई इंटरटेन नहीं करेंगे।पर ये कुलपति नहीं बिना पड़ी के लोटा और तानाशाह है अभी हाल में जो नियुक्तिया हुई है उसमे घपला कर इसने कई नए करो को लाया है ताकि कई कर मिलकर संगठित रह सकें. आने वाली छात्रों की प्रवेश परीक्षा में भी दलितों के साथ वही होने वाला है जो काम्बले के साथ हुवा था.

सोमवार, 8 मार्च 2010

हिन्दी विश्वविद्यालय में तानाशाही का जिम्मेदार कौन

हिन्दी विश्वविद्यालय में छात्रों पर हो रहा अत्याचार निरन्तर जारी है जिसका जिम्मेदार कौन है यह पूरे घटनाक्रम को समझने पर पता लगाया जा सकता है. आखिर एक बनते हुए विश्वविद्यालय में निरन्तर चल रही तानाशाही पर कौन लगाम लगायेगा.
मीडिया विभाग के एक छात्र अनिल को विश्वविद्यालय से निष्काशित करने के पीछे प्राक्टर मनोज कुमार और अनिल अंकित राय ने अपनी पूरी ताकत लगा दी. मनोज कुमार कथित तौर पर गाँधीवादी कार्यकर्ता रहे हैं पर इनका गाँधीवाद किस तरह का है यह इस घटना और उनकी क्रूर कार्यवाहियों से समझा जा सकता है. दिनांक १६ नवम्बर की बात है जब मीडिया विभाग में एक सेमिनार चल रहा था और अनिल नाम के एक शोधार्थी जब सेमिनार में बैठने गये तो उन्हें यह कहा गया कि वे नहीं बैठ सकते जबकि विश्वविद्यालय की परम्परा में अंतरानुसाशनिक विषयों के कारण कोई भी छात्र सेमिनार में बैठते रहे हैं. वहाँ पर बैठे छात्रों ने हस्तक्षेप कर अध्यापक अख्तर आलम से जब यह बात कही तो अनिल को सेमिनार में बैठ्ने दिया गया. जब एक छात्र द्वारा सेमिनार में कुछ गलत तथ्य प्रस्तुत किया गया तो अनिल उसे सुधारने के लिये सही तथ्य रखा इस बात पर अख्तर आलम ने उन्हें रोका और कहा कि आप बैठ सकते हैं पर कुछ बोल नहीं सकते. यह घटना है जिस आधार पर विश्वविद्यालय से एक छात्र को निष्कासित किया जाता है.
इस निष्कासन के कुछ महत्वपूर्ण पहलू हैं जिससे निष्कासन के परोक्ष कारणों को भी समझा जा सकता है.
सेमिनार के बाद अख्तर आलम से शोधार्थी अनिल ने लम्बी बात-चीत की और अख्तर आलम भी इस घटना को कोई तरजीह न देते हुए संतुष्ट दिखे. अनिल राय अंकित चोर गुरु (वर्धा) द्वारा अख्तर आलम से कहकर एक पत्र बनवाया गया जिसमे लिखा गया कि छात्र अनिल ने कक्षा को बाधित किया और इस आधार पर प्राक्टर मनोज कुमार और अनिल राय अंकित जो गहरे मित्र हैं ने मिलकर निष्कासन की एक रूपरेखा बनायी. पहले कारण बताओ नोटिस दिया गया जिसका एक जबाब शोधार्थी अनिल ने ३ पन्नों में विस्तृत रूप से तैयार करके दिया पर इस जबाब से प्राक्टर मनोज कुमार संतुष्ट नहीं हुए क्योंकि उन्हें संतुष्ट होना ही नहीं था यदि होते भी तो अनिल राय अंकित उसको असंतुष्टि में बदल देते यह जबाब कुलपति विभूति नरायण राय को प्रस्तुत किया गया और पूरे मसले पर उन्हों ने एक जाँच कमेटी बना दी. जांच कमेटी में अशोक नाथ त्रिपाठी, विश्वविद्यालय में दलित उत्पीड़न के लिये कुख्यात आत्म प्रकाश श्रीवास्तव व मनोज कुमार के विभाग के एक अध्यापक निपेन्द्र मोदी को रखा गया. इसमे किसी भी छात्र प्रतिनिधि को शामिल करना विश्वविद्यालय ने उचित नहीं समझा चूंकि सब कुछ अनिल राय अंकित और प्राक्टर द्वारा पहले से तय कर लिया गया था जिसका आगे हम विवरण प्रस्तुत करेंगे.
कमेटी की जाँच प्रक्रिया-
१- जाँच कमेटी ने अनिल से कोई बातचीत नहीं की न ही उनके किसी पक्ष को सुना.
२- जाँच कमेटी ने घटना पर उपस्थित किसी भी छात्र से कोई बातचीत नहीं की.
३- जाँच कमेटी के सदस्यों से कुछ छात्रों ने बात की जिससे पता चला कि अनिल राय अंकित और प्राक्टर मनोज कुमार के बयानों के आधार पर यह जाँच प्रक्रिया पूरी कर ली गयी.
४- इस पूरी प्रक्रिया में महज एक हप्ते लगे पर अनिल को निष्कासित तब किया गया जब अनिल चमड़िया के मामले पर कुलपति को छात्र अनिल द्वारा एक पत्र लिखा गया और अपनी असहमति दर्ज कराने के साथ पी.एच.डी. छोड़ने की बात कही गयी. यानि घटना के ४ माह बाद दिनांक १७ फरवरी को निष्कासन की नोटिस निकाली गयी.
इस मनमानी कार्यवाही के खिलाफ सभी छात्रों की एक आम सभा बुलायी गयी जिसमे छात्रों ने इस मनमानी कार्यवाही पर प्राक्टर का घेराव किया और उनसे कुछ सवाल पूछे जिसका जबाब प्राक्टर मनोज कुमार के पास नहीं था. मसलन प्राक्टर द्वारा किस समय सीमा तक किसी छात्र को निष्कासित किया जा सकता है यह अध्यादेश के हवाले से स्पष्ट करें? पर प्राक्टर मनोज कुमार को अध्यादेश तक नहीं पता था न ही उन्हें उनका अधिकार जब छात्रों ने विश्वविद्यालय के अधिनियम के अनुच्छेद १८, अध्यादेश १२ की धारा १० बी व धारा के बिंदु ११ को उन्हें पढ़ाया तो वे चुप हो गये. इस तरह के कई सवाल किये गये पर प्राक्टर मनोज कुमार के पास उसका कोई जबाब नहीं था और वे यह बोलते हुए कि हम इसे देखेंगे, वहाँ से चले गये. इस आधार पर छात्रों द्वारा एक हस्ताक्षर किया गया जिसमे अनिल के अन्यायपूर्ण निष्कासन को तुरंत वापस लेने की मांग की गयी पर प्राक्टर मनोज कुमार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया बल्कि निष्कासन की नोटिस कई दिनों तक अपने पास रखे. होली की छुट्टियों में जब छात्र घर चले गये तो वही अवैद्य नोटिस जो विश्वविद्यालय अधिनियम में प्राक्टर के अधिकारों के खिलाफ थी प्राक्टर द्वारा अनिल को दी गयी जिसे अनिल ने इस आधार पर अस्वीकृत कर दिया कि यह गैरकानूनी है क्योंकि प्राक्टर द्वारा किसी छात्र का निष्कासन अधिकतम १५ दिनों के लिये किया जा सकता था.
निष्कासन में न केवल विभाग बल्कि हास्टल और विश्वविद्यालय से भी निष्कासित किया गया और प्रतिदिन हास्टल में पुलिस भेजकर अनिल जिस भी छात्र के कमरे में ठहरते उन्हें परेशान किया जाता रहा. यह शहर में कर्फ्यू नहीं था बल्कि एक छात्र के लिये उस विश्वविद्यालय में कर्फ्यू लगा दिया गया जिसके कुलपति विभूति नारायण राय है. इस अन्याय पूर्ण कार्यवाही से क्या विभूति नारायण राय जी वाकिफ नहीं रहे या अभी तक नहीं हैं?

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

मीडिया विभाग के छात्रों द्वारा वहिस्कार






प्रति,
कुलपति
महात्‍मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा
विषय : जनसंचार विभाग के अनिश्‍िचतकालीन बहिष्‍कार की सूचना
हमें ज्ञात हुआ है कि जनसंचार विभाग के शिक्षक प्रो अनिल चमड़‍िया को विश्‍वविद्यालय द्वारा तत्‍काल प्रभाव से सेवामुक्‍त कर दिया गया है। इस निर्णय के लिए विजिटर द्वारा नामित छह सदस्‍यीय कार्यकारी समिति की पहली बैठक के कार्यवृत्त का हवाला दिया गया है।यह कदम कुलपति विभूति नारायण राय के मनमानेपन और नियम कानून को ताक पर रख काम करने के उनके रवैये की ही एक कड़ी है। इस निर्णय से न सिर्फ विश्‍वविद्यालय, उसके अधिनियम और न्‍याय की भावना के साथ खिलवाड़ हुआ है बल्कि न्‍यायालय के निर्णय से पहले ही स्‍वघोषित, मनमाना निर्णय सुनाया है, जिससे प्राकृतिक न्‍याय के सिद्धांत का भी घोर उल्‍लंघन किया गया है। इस पूरी प्रक्रिया में, इक्जिक्‍यूटिव कौंसिल को मामले की आधी-अधूरी जानकारी देते हुए उसे एक कवर के रूप में इस्‍तेमाल किया गया है। वहीं, दूसरी ओर प्रोफेसर और वर्तमान में विभागाध्‍यक्ष अनिल कुमार राय अंकित के ऊपर चोरी करके कई किताबें लिखने के आरोप के बावजूद इक्जिक्‍यूटिव कौंस‍िल से उनकी नियुक्ति का कनफर्मेशन हासिल किया गया है। अनिल अंकित राय के कारनामों के बारे में देश के मीडिया में लगातार खबरें आ रही हैं। ऐसे में ये निर्णय कुलपति विभूति नारायण राय की मनमानियों का स्‍पष्‍ट प्रमाण हैं।हम छात्र-छात्राएं कुलपति के इस निरंकुश निर्णय से सर्वाधिक प्रभावित लोग हैं। अनिल चमड़‍िया न सिर्फ देश के एक जाने माने पत्रकार हैं बल्कि वे देश भर के प्रमुख पत्रकारिता संस्‍थानों में मीडिया के एक लोकप्रिय शिक्षक हैं और इसलिए हमारे विश्‍वविद्यालय द्वारा चयन की पूरी प्रक्रिया के तहत उनके आउटस्‍टैंडिंग वर्क रिकॉर्ड के आधार पर बतौर एमिनेंट स्‍कॉलर प्रोफेसर पद पर चयन किया गया था। यह बेहद अफ़सोसनाक है कि विजिटर द्वारा नामित कार्यकारी परिषद ने सभी जरूरी तथ्‍यों की जांच-पड़ताल किये बगैर कुलपति के इस मनमाने निर्णय पर मुहर लगा दी है।हम छात्र-छात्राएं इन मनमाने निर्णय के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराते हुए जनसंचार विभाग के अनिश्‍िचतकालीन बहिष्‍कार की घोषणा करते हैं। और अगर इस पर तत्‍काल उचित कार्रवाई नहीं की जाती तो विरोध स्‍वरूप अगले कदम के बतौर हम अपनी डिग्री त्‍याग देंगे।

छात्र छात्राएंअनिल, लक्ष्‍मण प्रसाद, दिनेश मुरार, चंद्रिका, अमिता, दिलीप, देवाशीष प्रसून, उमा साह, अतुल कुमार सिंह, आजाद अंसारी, भानु प्रताप, धीरज कांबले, उत्‍पल कांत, रोशनी, ईशा, सुनील घोड़के, राजदीप राठौर, रत्‍नाकर, नीलेश झाल्‍टे, हरि प्रताप सिंह, गुंजेश, रेणु कुमारी, रत्‍नेश, अजयप्रतिलिपि,1)

विजिटर, महात्‍मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय

विजिटर द्वारा नामित सभी सदस्‍य, कार्यकारी परिषद

कैबिनेट मंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, नयी दिल्‍ली

अध्‍यक्ष, विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

सबसे अहम मौके पर तुम हार गये हो “विभूति”

यह महज़ उम्र का मामला नहीं होता
सवाल, सवाल होते हैं
जिसे तुम हर बार टाल जाते हो
बचकाना कहकर
तुम्हारी लड़ाईयों पर हमे यकीन है
हमे यकीन है कि हम बचे हैं
हमारे बच्चे मस्जिद में अब भी
नमाज़ अदा करने जाते हैं
थोड़ा डर सहम के साथ
वे गुजरात में भी रह ही लेते हैं

हमारे जिंदा होने का सुबूत हैं
वे लड़ाईयाँ
जो लड़ी गयी
जिसमे तुम भी शामिल थे

सुना था कि
शहर और कर्फ्यू एक साथ नहीं रहे वहाँ
जहाँ तुम मौजूद थे
आये भी तो किताबों में छिपकर
तुम्हारे तबादले के बाद
सुना है कि
तबादला, शहर, कर्फ्यू, और चोर हैं
तुम भी वहीं कहीं
उम्र की बढ़त और साहस की कमी के साथ
सुनाने वाले ने कहा था
“मैं झूठ नहीं बोलता”
यह बोलकर
कोई कितना भी झूठ बोले
कोई कैसे टोकेगा

क्या किताबें अब सिरहाने की तकिया हो गयी हैं “विभूति नारायण”
जिसका इश्तेमाल वही करते हैं
जो सोने की तैयारी में हैं
अपनी कमसिन उम्र में मैने चाहा था
और मैं खुश हूँ कि
मेरी चाहत अब भी बची हुई है
कि किताबें जूता बन जायें
चलने के पहले हर आदमी के पैर कसने का
आदमी के बदलने से
आदमीयत से भरोसा अभी भी नहीं उठा “विभूति नारायण”
कई लोगों के जीने की वज़ह बहुत मामूली होती है
जबकि मामूली जीजें कई पीढ़ीयों तक हल नहीं होती

तुमने किताब को किताब कहा
जिसे पढ़ा जाना चाहिये
सिद्धान्त को सिद्धान्त कहा
जिसे गढ़ा जाना चाहिये
और लगा दिये हैं कई लोहार और बढ़ई
जिन्हें चस्मा और कुदाल में फर्क करना नहीं आता
पर तुम तो बखूबी जानते हो
अगर चस्मे को तुम कुल्हाड़ी कहोगे
तो कितने सारे कहेंगे कुल्हाड़ी
और यह भी जानते हो
कि वे क्यों कह रहे हैं
चस्मे को कुल्हाड़ी
जबकि तुम, वे, हम, सब
जानते हैं कि चस्मा, चस्मा होता है कुल्हाड़ी होती है कुल्हाड़ी


एक झूठी लड़ाई कितनी आसान होती है
तब जब लोग उलझ गये हों झूठ में,
और झूठ, झूठ कहाँ रहता है
जबतक कोई उंगली उठाकर यह न कहे “यह रहा झूठ”
जबकि तुम सोचो
सच में सोचो, सच के बारे में
उस सच के बारे में, जिसे तुम खुद से कह सको
कि सच यह था
तुम तलासो ईमानदारी, आदमी के इर्द-गिर्द बची रह जाती है
उम्र से ईमानदारी का कोई सीधा नाता नहीं
तुम्हें भी मिल ही जायेगी
तुम्हारे कुर्ते के जेब में
या बटन के धागे में
कम ही सही

वह जो बचा था तुम्हारे लिये
वे लड़ाईयां जिन्हें तुमने जीता है
किन्हीं मोर्चों पर
और जिनके खिलाफ तुम लड़े
आज तुम्हारे साथ खड़े हैं

शायद सबसे अहम मौके पर तुम हार गये हो “विभूति नारायण”.
विश्वविद्यालय के एक छात्र द्वारा भेजी गयी.

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

श्री विभूति नारायण राय, कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के नाम एक पत्र

दिल्ली 9 फरवरी 2010


प्रिय विभूतिजी
अभिवादन !

उम्मीद है, स्वस्थ होंगे .

लम्बे समय से इस उधेड़बुन में था कि चन्द बातें आप तक किस तरह संप्रेषित करूं ? व्यक्तिगत मुलाकात संभव नहीं दिख रही थी, सोचा पत्र के जरिए ही अपनी बात लिख दूं. और यह एक ऐसा पत्र हो, जो सिर्फ हमारे आप के बीच न रहे बल्कि जिसे बाकी लोग भी पढ़ सकें, जान सकें. इसकी वजह यही है कि पत्र में जिन सरोकारों को मैं रखना चाहता हूं, उनका ताल्लुक हमारे आपसी संबंधों से जुड़े किसी मसले से नहीं है.

आप को याद होगा कि महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर आप की नियुक्ति होने पर मेरे बधाई सन्देश का आपने उसी आत्मीय अन्दाज़ में जवाब दिया था. उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश की पुलिस द्वारा एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की अनुचित गिरफ्तारी के मसले को जब मैंने आप के साथ सांझा किया तब आपने अपने स्तर पर उस मामले की खोज-ख़बर लेने की कोशिश की थी. हमारे आपसी संबंधों की इसी सांर्द्रता का नतीजा था कि आप के संपादन के अंतर्गत सांप्रदायिकता के ज्वलंत मसले पर केन्द्रित एक किताब में भी अपने आलेख को भेजना मैंने जरूरी समझा. इतना ही नहीं कुछ माह पहले जब मुझे बात रखने के लिए आप के विश्वविद्यालय का निमंत्रण मिला तब मैंने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया.

यह अलग बात है कि वर्धा की अपनी दो दिनी यात्रा में मेरी आप से मुलाक़ात संभव नहीं हो सकी. संभवतः आप प्रशासनिक कामों में अत्यधिक व्यस्त थे. आज लगता है कि अगर मुलाक़ात हो पाती तो मैं उन संकेतों को आप के साथ शेअर करता -जो विश्वविद्यालय समुदाय के तमाम सदस्यों से औपचारिक एवं अनौपचारिक चर्चा के दौरान मुझे मिल रहे थे- और फिर इस किस्म के पत्र की आवश्यकता निश्चित ही नहीं पड़ती.

मैं यह जानकर आश्चर्यचकित था कि विश्वविद्यालय में अपने पदभार ग्रहण करने के बाद अध्यापकों एवं विद्यार्थियों की किसी सभा में आप ने छात्रों के छात्रसंघ बनाने के मसले के प्रति अपनी असहमति जाहिर की थी और यह साफ कर दिया था कि आप इसकी अनुमति नहीं देंगे.



यह बात भी मेरे आकलन से परे थी कि सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबके से आने वाले एक छात्र- सन्तोष बघेल को विभाग में सीट की उपलब्धता के बावजूद शोध में प्रवेश लेने के लिए भी आंदोलन का सहारा लेना पड़ा था और अंततः प्रशासन ने उसे प्रवेश दे दिया था. विश्वविद्यालय की आयोजित एक गोष्ठी में जिसमें मुझे बीज वक्तव्य देना था, उसकी सदारत कर रहे महानुभाव की ‘लेखकीय प्रतिभा’ के बारे में भी लोगों ने मुझे सूचना दी, जिसका लुब्बेलुआब यही था कि अपने विभाग के पाठयक्रम के लिए कई जरूरी किताबों के ‘रचयिता’ उपरोक्त सज्जन पर वाड्मयचैर्य अर्थात प्लेगिएरिजम के आरोप लगे हैं. कुछ चैनलों ने भी उनके इस ‘हुनर’ पर स्टोरी दिखायी थी.

बहरहाल, विगत तीन माह के कालखण्ड में पीड़ित छात्रों द्वारा प्रसारित सूचनाओं के माध्यम से तथा राष्ट्रीय मीडिया के एक हिस्से में विश्वविद्यालय के बारे में प्रकाशित रिपोर्टों से कई सारी बातें सार्वजनिक हो चुकी हैं. अनुसूचित जाति-जनजाति से संबंधित छात्रों के साथ कथित तौर पर जारी भेदभाव एवं उत्पीड़न सम्बन्धी ख़बरें भी प्रकाशित हो चुकी हैं.

6 दिसम्बर 2009 को डॉ. अम्बेडकर परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित रैली में शामिल दलित प्रोफेसर लेल्ला कारूण्यकारा को मिले कारण बताओ नोटिस पर टाईम्स आफ इण्डिया भी लिख चुका है. उन तमाम बातों को मैं यहां दोहराना नहीं चाहता.

जनवरी माह की शुरूआत में मुझे यह भी पता चला कि हिन्दी जगत में प्रतिबद्ध पत्रकारिता के एक अहम हस्ताक्षर श्री अनिल चमड़िया- जिन्हें आप के विश्वविद्यालय में स्थायी प्रोफेसर के तौर पर कुछ माह पहले ही नियुक्त किया गया था- को अपने पद से हटाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन आमादा है.

फिर चंद दिनों के बाद यह भी सूचना सार्वजनिक हुई कि विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी परिषद की आकस्मिक बैठक करके उन्हें पद से मुक्त करने का फैसला लिया गया और उन्हें जो पत्र थमा दिया गया, उसमें उनकी नियुक्ति को ‘कैन्सिल’ करने की घोषणा की गयी.

मैं समझता हूं कि विश्वविद्यालय स्तर पर की जाने वाली नियुक्तियां बच्चों की गुड्डी-गुड्डा का खेल नहीं होता कि जब चाहें हम उसे समेट लें. निश्चित तौर पर उसके पहले पर्याप्त छानबीन की जाती होगी, मापदण्ड निर्धारित होते होंगे, योग्यता को परखा जाता होगा. यह बात समझ से परे है कि कुछ माह पहले आप ने जिस व्यक्ति को प्रोफेसर जैसे अहम पद पर नियुक्त किया, उन्हें सबसे सुयोग्य प्रत्याशी माना, वह रातों रात अयोग्य घोषित किया गया और उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका तक नहीं दिया गया ?

कानून की सामान्य जानकारी रखनेवाला व्यक्ति भी बता सकता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन का यह कदम प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के खिलाफ है. और ऐसा मामला नज़ीर बना तो किसी भी व्यक्ति के स्थायी रोजगार की संकल्पना भी हवा हो जाएगी क्योंकि किसी भी दिन उपरोक्त व्यक्ति का नियोक्ता उसे पत्र थमा देगा कि उसकी नियुक्ति –‘कैन्सिल’.

यह जानी हुई बात है कि हिन्दी प्रदेश में ही नहीं बल्कि शेष हिन्दोस्तां में लोगों के बीच आप की शोहरत एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की रही है, जिसने अपने आप को जोखिम में डाल कर भी साम्प्रदायिकता जैसे ज्वलंत मसले पर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने की कोशिश की. ‘शहर में कर्फ्यू’ जैसे उपन्यासों के माध्यम से या ‘वर्तमान साहित्य’ जैसी पत्रिका की नींव डालने के आप की कोशिशों से भी लोग भलीभांति वाकीफ हैं. संभवतः यही वजह है कि कई सारे लोग, जो कुलपति के तौर पर आप की कार्यप्रणाली से खिन्न हैं, वे मौन ओढ़े हुए हैं.

इसे इत्तेफाक ही समझें कि महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के समय से ही विवादों के घेरे में रहा है. चाहे जनाब अशोक वाजपेयी का कुलपति का दौर रहा हों या उसके बाद पदासीन हुए जनाब गोपीनाथन का कालखण्ड रहा हो, विवादों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा है. मेरी दिली ख्वाहिश है कि साढ़े तीन साल बाद जब आप पद भार से मुक्त हों तो आप का भी नाम इस फेहरिस्त में न जुड़े.

मैं पुरयकीं हूं कि आप मेरी इन चिंताओं पर गौर करेंगे और उचित कदम उठाएंगे.

आपका
सुभाष गाताडे

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

अनिल चमड़िया एक अनैतिक टीचर हैं: विभूति नारायण राय को जबाब

मीडिया फार भड़ास पर प्रकाशित साक्षात्कार के संदर्भ में .............
अफसोस, अफसोस इस बात का कि पुरानी कहावतों से विभूति जी कुछ नहीं सीख सके (उल्टा चोर कोतवाल को डांटे), अफसोस कि एक अच्छा आदमी बनने के लिये जिस सब्र की जरूरत है वह नहीं रही, अफसोस कि आप एक अच्छे छात्र भी आप नहीं बन सके, अफसोस कि आप अपने चिंतन में इतने थोथे निकले.... मसलन आप इतने झूठे निकले कि आपने अनिल चमड़िया के हेराफेरी के कारण परीक्षा तो करवायी, पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं की, आपने यहाँ यह नहीं बताया कि उस प्रक्रिया में राम मोहन पाठक से लेकर, उप-कुलपति तक फंसे, आपने यह भी नहीं बताया कि दुबारा जो परीक्षा हुई उसमे जामिया के एक चोर गुरू और अनिल अंकित राय के सहयोगी चोर दीपक के.एम. ने कापी जाँची. क्या आप जबाब देंगे कि अनिल चमड़िया पर उस समय क्या कार्यवाही की गयी और नहीं तो क्यों?
दरअसल एकपक्षीय रिपोर्टिंग इसे कहते हैं विभूति जी, क्या यह सच है कि आरोप वही लोग लगा रहे हैं जिनके स्वार्थ आपसे पूरे नहीं हो पाये तो क्या जो आपके साथ खड़े हैं उनके स्वार्थ पूरे हो चुके हैं या भविष्य में आप उन्हें पूरा करेंगे. जिन्दगी, संघर्ष और लड़ाईयां कई बार स्वार्थ से ऊपर उठकर भी लड़ी जाती हैं, इस तरह के खोखले तर्क निश्चिततौर पर दुनिया की जुझारु लड़ाईयों और लड़ने वालों के लिये भद्दे मजाक ही हैं. हिन्दी वि.वि. के मीडिया विभाग का रजिस्टर चेक कर लिजिये और छात्रों से पूंछ लिजिये क्या अनिल चमड़िया से अधिक और अच्छा क्लास किसी अध्यापक ने लिया है, पर आप छात्रों से पूंछने के नाम पर उनसे पूंछेगे जिन्हें स्टूडियो प्रभारी बनाने की बात या लेक्चरर बनाने की बात अनिल अंकित चला रहे हैं शायद......पर आपके कहने पर अनिल चमड़िया ने क्लास लेना शुरु किया इसको प्रस्तुत करने का आपका तरीका उनसे वाकई दुराग्रहपूर्ण लगता है. क्योंकि मामला क्लास लेने का नहीं था, मामला था कि क्लास, क्लासरूम में अनिल चमड़िया नहीं ले रहे थे और छात्रों को अपने चैम्बर में बुलाकर ४० मिनट के बजाय २ घंटे की क्लास लेते थे क्योंकि क्लास रूम में आवाज गूंजती थी. जिसपर छात्र तो खुश थे पर अनिल राय अंकित ने आपसे शिकायत की और कहा कि अनिल चमड़िया कक्षा में नहीं पढ़ाते. जिसे आप यहाँ प्रचारित कर रहे हैं क्योंकि आपके पास तर्क नहीं है. इसलिये आपकी दोनों बातें झूठी नहीं तो आधार विहीन हैं. निश्चित तौर पर जातिवादी कहने से आप जातिवादी नहीं हो जायेंगे, न ही महिला विरोधी कहने से महिला विरोधी पर आपके व्यवहार यह तय करेंगे कि आप क्या हैं. पिछले दिनों छात्रों की एक बैठक में कुछ छात्राओं ने कहा कि आप अश्लील शब्दों के साथ बात करते हैं इसलिये वे आपसे बात-चीत करने का जो कि छात्र प्रस्ताव रख रहे थे को वे छात्रायें मना कर रही थी. आपके कथन को ही वे दोहरा रही थी कि छात्र तुम लोगों को टाफी समझते हैं. तुम्हारी स्वतंत्रतायें छात्रावासों के कमरे तक ही सीमित क्यों है? व अन्य अन्य.
गाली गलौज की भाषा में ब्लाग या कहीं भी बात करना गलत है पर अब तक अनिल चमड़िया और आपसे जुड़े इस विवाद में जितने प्रकाशन हुए हैं उनकी टिप्पणियों पर यदि शोध किया जाय तो आपके पक्ष में खड़े ज्यादातर लोगों की भाषा निहायत गंदी रही है. क्या यह पक्षधरता समरूपी चेतना का परिचायक नहीं है या फिर यह भी कहा जा सकता है कि आपकी तरफ से जो लोग लामबंद हुए हैं वे बेहद स्तर विहीन तरीके से सामने आये हैं, तो एक बार जरूर सोचना चाहिये कि ये कौन लोग हैं जो पूरे बहस को कुचर्चा में बदलना चाहते हैं क्योंकि इस पर एक स्वस्थ बहस हो इससे आपको भी एतराज न होगा. आपने ब्लाग माडरेटरों से सवाल किया कि सम्पादक के रूप में वे किसी दलित को क्यों नहीं रख लेते? इसका क्या आशय लगाया जाय क्या यह कि मसले से महत्वपूर्ण जातियां हैं. मैं आपको आपके विश्वविद्यालय का एक आंकड़ा देता हूं जिसे मैंने कहीं पढ़ा है इसलिये अगर वह स्रोत गलत हो तो मुझे क्षमा कीजियेगा आपके विश्वविद्यालय में एक मात्र छात्रावास है जिसका नाम सावित्री बाई फुले के नाम पर है, आपके वि.वि. में एक मात्र अस्पताल है जो अम्बेडकर के नाम पर है, आपके वि.वि. में अम्बेडकर जनजातीय अध्ययन जैसे विभाग चलते हैं, आपके वि.वि. में छात्रों की कुल संख्या २४७ है जिसमे १०० से अधिक अम्बेडकर स्टूडेंट फोरम के सदस्य है, यानि दलित छात्र बहुलता में हैं और आपके विश्वविद्यालय में ही एक माह तक दलित छात्रों को आंदोलन करना पड़ता है और न्याय नहीं मिल पाता, आपके द्वारा ही दलित अध्यापक को अम्बेडकर परिनिर्वाण दिवस की रैली में भाग लेने पर धमकाया जाता है, जो आस्थायी नियुक्तियां आपने की हैं उसमे एक भी दलित शामिल नहीं है.
ये दस्तावेज आप पढ़ सकते हैं
१- सुनो विभूति, तुम सेकुलर जातिवादी हो
लिहाज़ा हम आपके इस झूठ, तथ्यविहीन और अनैतिक वक्तव्यों का क्या मायने लगायें. क्या यह कि प्रोपोगेंडा करके आप चल रही इन बहसों पर “मोहल्ला में कर्फ्यू” लगवाना चाहते हैं.
आपका पूर्व और सकारात्मक कार्यों का अब भी प्रसंसक छात्र.
वर्धा मेल से प्राप्त

विभूति नारायण राय......Unscrupulous …है.. - नामवर सिंह


श्री नामवर सिंह ने श्री काशीनाथ सिंह को निम्न पत्र लिखा था-जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालयनई दिल्ली-11000678-04-८४

प्रिय काशी,

श्री विभूति नारायण राय के बारे में जो कुछ सुना है उससे उनके बारे में मेरी राय अच्छी नहीं है। वे बड़े महत्वाकांक्षी आदमी हैं और महत्वाकांक्षी आदमी कुछ भी कर सकता है। अंग्रेजी में ऐसा आदमी Unscrupulous कहा जाता है। उनके इर्द-गिर्द ऐसे ही खाऊ-कमाऊ लेखकनुमा जीव फिरते रहते हैं। मुझे भय है कि तुम्हें वे किसी चक्कर में न फँसा दें। तुम्हारा नामवर
हिन्दी के भीष्मपितामह नामवर सिंह ( NAMAVAR SINGH ) ने यह पत्र हिन्दी के प्रख्यात कहानीकार अपने सगे छोटे भाई काशीनाथ सिंह ( KASHINATH SINGH ) को लिखा है। काशी के नाम नामवर के लिखे पत्रों का संकलन राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली , ने “काशी के नाम ” शीर्षक से छापा है। 2006 में छपी 364 पेज की यह पुस्तक 400 रूपये की है। नामवर जी ने विभूति नारायण राय के बारे में जो लिखा है वह इस पुस्तक के पेज 252 पर छपा है।जिसमें नामवर सिंह ने लिखा है-श्री विभूति नारायण राय के बारे में जो कुछ सुना है उससे उनके बारे में मेरी राय अच्छी नहीं है। वे बड़े महत्वाकांक्षी आदमी हैं और महत्वाकांक्षी आदमी कुछ भी कर सकता है। अंग्रेजी में ऐसा आदमी Unscrupulous कहा जाता है।

.....एस.चन्द एंड कम्पनी,रामनगर,नईदिल्ली से प्रकाशित फादर कामिल बुल्के की लिखी“अंगरेजी हिन्दी कोश ” के 1992 के संस्करण के पेज 804 परUNSCRUPULOUS शब्द का अर्थ दिया है- अनैतिक, चरित्रहीन, बेईमान.

नामवर सिंह ने लिखा है-...अंग्रेजी में ऐसा आदमी Unscrupulous कहा जाता है।...इस वाक्य को पूरा का पूरा हिन्दी में लिखे तो वाक्य होगा-... ऐसा आदमी अनैतिक, चरित्रहीन, बेईमान कहा जाता है ।....यह लिखने पर नामवर सिंह का काशी के नाम लिखा यह पत्र इस तरह पढ़ा जायेगा-प्रिय काशी,श्री विभूति नारायण राय के बारे में जो कुछ सुना है उससे उनके बारे में मेरी राय अच्छी नहीं है। वे बड़े महत्वाकांक्षी आदमी हैं और महत्वाकांक्षी आदमी कुछ भी कर सकता है। ऐसा आदमी अनैतिक, चरित्रहीन, बेईमान कहा जाता है। उनके इर्द-गिर्द ऐसे ही खाऊ-कमाऊ लेखकनुमा जीव फिरते रहते हैं। मुझे भय है कि तुम्हें वे किसी चक्कर में न फँसा दें। तुम्हारा नामवर

गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र के चांसलर हैं नामवर सिंह।और पुलिस अफसर विभूति नारायण राय(VIBHUTI NARAYAN RAI / V.N.RAI ) इस विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। यह केन्द्रीय विश्वविद्यालय है। जिस समय केन्द्र में वामपंथियों के सहयोग से मनमोहन सिंह की सरकार थी ,उस समय, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति पद पर पुलिस अफसर विभूति नारायण राय की 5 साल के लिए नियुक्ति हुई।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

विभूति जी सुनिये अनिल चमड़िया सराब पीते हैं, गलत करते हैं न

यह छूठ जब कुलपति विभूति नारायण राय द्वारा फैलाया गया तो अनिल चमड़िया ने एक लेख लिखा था जो कई अखबारों में छपा था इसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है- वैसे यहाँ यह मसला नहीं था कि सराब पीने पर बात की जाती पर इससे यह पता जरूर लगाया जा सकता है कि अनिल चमड़िया को किस-किस रूप में इस विश्वविद्यालय में प्रताड़ित होना पड़ा है और अन्य ऐसे कितने अध्यापक हैं जो प्रताड़ित हो रहे हैं पर जुबान नहीं खोल पा रहे हैं।

सत्ता का क्रूर प्रचार तन्त्र /अनिल चमड़िया
अगर आप बिना दूध की चाय पीते हों और उसे शीशे के गिलास में पीते हो तो आपको आसानी से शराबी कहा जा सकता है. दिन में कई बार ऐसी चाय पीते हों और कई लोगों के साथ पीते हो तो आपके घर को शराबियों के अड्डे के रूप में प्रचारित किया जा सकता है. हमारे समाज में प्रचार का गहरा असर है. प्रचार का एक ढाँचा है जिस पर समाज में वर्चस्व रखने वालों का नियंत्रण हैं. बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब गणेश की मूर्तियों के दूध पीने के करिश्मे को वास्तविकता के रूप में दुनिया के बड़े हिस्से में कई घंटों में स्थापित कर दिया गया था. यह काम किसी मीडिया के प्रचार के जरिये नहीं हुआ था. मीडिया के मंच प्रचार के माध्यम तो हैं लेकिन हर तरह के प्रचार मीडिया द्वारा ही स्थापित नहीं होते हैं. जैसे किसी भी छोटे बड़े संस्थान में किसी के बारे में किसी तरह के प्रचार को जब स्थापित किया जाता है तो उसमें किस माध्यम की भूमिका होती है?दरअसल प्रचार अनिवार्य तौर पर किसी राजनीति से जुड़ा होता है. इसमें सच को देखना बेहद मुश्किल काम होता है.अमेरिका ने इराक के राष्ट्रपति शहीद सद्दाम के खिलाफ लंबे समय तक अभियान चलाया. अमेरिका ने कहा कि इराक के पास जनसंहारक रासायनिक हथियार हैं और उससे पूरी दुनिया में तबाही लाई जा सकती है. यह अभियान लगातार चलता रहा और जब से ये अभियान शुरू हुआ तब से उसे सच मानने वालों की संख्या तब तक बढ़ती रही जबतक कि अमेरिका ने सबसे पुरानी सभ्यताओं के बीच विकसित देश इराक को तबाह नहीं कर दिया. बाद में यह पता चला कि इराक के पास ऐसे हथियार नहीं थे . इस प्रचार का मकसद केवल सद्दाम हुसैन को खत्म करना था और सीना तानकर खड़े होने वाले इराक जैसे देश को झुकना सिखाना था. बाद में दुनिया भर की जनवादी ताकतें हाथ मलती रहीं लेकिन उससे क्या होता है.प्रचार के ढांचे को समझने के लिए एक चीज जरूरी होती है कि किसी भी तरह के प्रचार को किस तरह से खड़ा किया जा सकता है. एक उदाहरण के जरिये इसे समझा जा सकता है. यौन उत्पीड़न के खिलाफ शिकायत दर्ज करने वाली एक संस्था की समिति के एक सदस्य ने एक दिन कई लोगों के बीच खड़े होकर संस्था की अध्यक्ष से कहा कि वो उन्हें अकेले में यौन उत्पीड़न की एक शिकायत पर की गई जांच की रिपोर्ट को नहीं दिखा सकता है. अध्यक्ष जांच समिति के उस सदस्य को भौचक देखती रही. उसे आश्चर्य हुआ कि समिति का सदस्य उसे ऐसा क्यों कह रहा है जबकि उन्होंने तो कभी भी उस सदस्य से उस रिपोर्ट को दिखाने के लिए नहीं कहा. अकेले या दुकेले की बात ही कहाँ से उठती है. दरअसल समिति का सदस्य जिसके खिलाफ शिकायत थी उसके प्रति सहानुभूति रखता था. वह दो बातों को ध्यान में रखकर अपने प्रचार की सामग्री को बड़े दायरे में भेजना चाहता था. पहली बात तो वह तकनीकी रूप से गलत नहीं बोल रहा है इसके प्रति सावधनी बरत रहा था. दूसरे वह यह संदेश भेजना चाहता था कि संस्था की अध्यक्ष इस मामले में कुछ खास व्यक्तिगत दिलचस्पी ले रही है. जिन लोगों ने समिति के सदस्य से संस्था की अध्यक्ष से यह कहते सुना उन्होंने तत्काल ही दूसरे लोगों से कहना ये शुरू कर दिया कि संस्था की अध्यक्ष जाँच समिति की रिपोर्ट को अकेले देखना चाहती थी. इस तरह से एक प्रचार अभियान की शुरुआत होती है . जाहिर सी बात है कि जो इस तरह का प्रचार अभियान विकसित करना चाहता है वह इस बात को लेकर अपनी पक्की अवधरणा बनाए हुए है कि समाज में प्रचार का जो ढाँचा विकसित है यह सामग्री उसकी खुराक के रूप में इस्तेमाल हो जाएगी. लेकिन अध्यक्ष इस तरह के प्रचार की बारीकियों को नहीं समझती थी और केवल अपने आदर्श और नैतिकता के तहत जाँच को एक अंजाम तक पहुँचते देखना चाहती थी. इस तरह के प्रचार बड़े स्तर पर किस तरह से विकसित किए जाते हैं इसे संसद की रिपोर्टिंग के दौरान भी इस लेखक ने अनुभव किया. संसद में अक्सर सवाल उठाए जाते हैं कि फलां समाचार पत्रा में इस आशय के समाचार प्रकाशित हुए हैं. सरकार को इस पर जवाब देना चाहिए. दूसरी तरफ स्थिति यह है कि समाचार पत्रा यदि किसी भी तरह के समाचार को प्रकाशित करता है तो वह गलत भी हो सकता है और बेबुनियाद भी हो सकता है. लेकिन वह इसके लिए किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है. उसे जवाबदेह होना चाहिए ये एक अपेक्षा है और ये एक दूसरी बात है.अब अखबार में छपने के बाद संसद का सदस्य उसे अपना आधर बना लेता है. प्रचार का आधर किस तरह से विकसित किया जा रहा है इसे समझना जरूरी होता है. फिर संसद में पूछे गए सवाल पर अखबार ये समाचार बना सकता है कि संसद में ये सवाल पूछा गया. संसद में सवाल के पहुंचने के बाद प्रचार को विश्वसनीयता का भी एक आधर मिल जाता है. संसद के प्रति समाज का एक भरोसा है. इस तरह बार बार उलटपफेर से एक प्रचार अभियान विकसित होता है. समाज और सत्ता पर वर्चस्व रखने वाले लोग इसी तरह से प्रचार के ढाँचे का इस्तेमाल करते हैं. माध्यमों से वे अपने प्रचार की गति को तेज करते हैं. मीडिया ने इस काम में बहुत मदद की है.समाज में खबरें सुनना, पढ़ने और देखने की आदत का विकसित होना ही महत्वपूर्ण नहीं होता है बल्कि उसमें किसी भी उस तक पहुँचने वाली सामग्री के भीतर देख पाने की क्षमता का विकास भी जरूरी होता है. वह किसी भी सामग्री का विश्लेषण करने की क्षमता का विकास नहीं करेगा तो वह हर वक्त शासकों के प्रचार अभियान का शिकार होगा. काली चाय शराब के रूप में उसे दिखाई जाएगी वह उसे मानने के लिए अभिशप्त होगा. मीडिया के विस्तार और उसके बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर तो समाज से और भी गहरी दृष्टि विकसित करने की अपेक्षा की जाती है.

प्रो. अनिल चमड़िया को हटाये जाने की निंदा- अम्बेडकर स्टूडेंट फोरम

वर्धा: ०३-०२-१०
आज दिनांक ३/२/१० को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में अम्बेडकर स्टूडेन्ट फोरम की केन्द्रीय कार्यकारिणी की एक बैठक हुई इसमे विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा दलितविरोधी कार्यवाहियों के खिलाफ आंदोलन को और तेज करने की रूपरेखा पर विचार किया गया फोरम की तरफ से एक निंदा प्रस्ताव भी पारित किया गया, जिसमे जनसंचार विभाग के प्रोफेसर अनिल चमड़िया को कुलपति द्वारा हटाये जाने की घोर भर्त्सना की गयी. निंदा प्रस्ताव में यह कहा गया कि प्रो. अनिल चमड़िया देश के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी और पत्रकार हैं. वे लगातार दलित, शोषित और वंचित तबकों के लिये लिखते रहे हैंऔर आंदोलनो में हिस्सा भी लेते रहे हैं. हमेशा न्याय और सच का पक्ष लेने वाले प्रो. चमड़िया वि.वि. में बेहद लोकप्रिय प्राध्यापक रहे हैं और छात्रों के अकादमिक विकास के लिये हमेशा तत्पर और सक्रिय रहे हैं. सामंती और जातिवादी कुलपति विभूति नरायण राय को यही रास नहीं आया और उन्होंने प्रो. चमड़िया को साजिश के तहत वि.वि. से हटा दिया.
फोरम ने इस पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि अम्बेडकर की भूमि वर्धा में दलित विरोधी किसी भी कदम को हम और बर्दास्त नहीं करेंगे. कार्यकारिणी ने प्रो. चमड़िया के प्रति वि.वि. प्रशासन के इस जातिवादी और शाजिसाना कदम के खिलाफ आंदोलन तेज करने का निर्णय लिया है. आज से एक हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा है जिसे राष्ट्रपति, मानव संसाधन विकास मंत्री और यू.जी.सी. को भेजा जायेगा. फोरम ने वि.वि. के सभी छात्रों से यह अपील की है कि वे विश्वविद्यालय के छात्र विरोधी, सामंती नजरिये के खिलाफ एक जुट हों और वि.वि. के प्रत्येक कार्यक्रम का तब-तक वहिस्कार करें जब तक एक लोकतांत्रिक स्थिति कायम नहीं की जाती. गौरतलब है कि पिछले दिनों आयोजित “कथा-समय” का भी फोरम के सदस्यों ने पूरी तरह वहिस्कार किया. इन स्थितियों के बने रहने तक विश्वविद्यालय के दलित छात्र वि.वि. में भविष्य में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों का भी वहिस्कार जारी रखेंगे. फोरम ने चेतावनी दी कि यदि प्रो. अनिल चमड़िया को वि.वि. में वापस नहीं लाया गया तो यहाँ का दलित छात्र समुदाय चुप नहीं बैठेगा और आन्दोलन को व्यापक स्तर पर छेड़ा जायेगा.
केन्द्रीय सदस्य
अम्बेडकर स्टूडेन्ट फोरम
म.गा.अ.हि.वि.वि., वर्धा

वर्धा मेल से प्राप्त

शनिवार, 30 जनवरी 2010

एक अपील छात्रों, पत्रकारों और देश के भद्रजनों से

विस्फोट फार मीडिया पर दरोगा साब ने एक साक्षात्कार में कहा- कहने दीजिये कहने से क्या होता है, यह जो कुछ उनके बारे में छप रहा था उसकी प्रतिक्रिया के तौर पर था. अगर कहने दीजिये कहने से कुछ नहीं होता, बोलने दीजिये बोलने से कुछ नहीं होता, लिखने दिजीये लिखने से कुछ नहीं होता, तो हे दुनिया के लेखकों वक्ताओं यह दरोगा आपको निकम्मा समझता है, हे सुधी पत्रकारों इस दरोगा से पूछो कि क्या करें कि कुछ हो और हे साहित्य शिल्पियों तुमने अपने जीवन में परिश्रम करके जो कुछ गढ़ा है उसे यह तथाकथित पुलिस कथाकर व्यर्थ बता रहा है. क्योंकि अब तक आप लोगों ने समाज की संरचना और घटना को कहा ही तो है. तो कहने से कुछ नही होता तो क्या भूमिहार दरोगा की बात मान ली जाय और अब कहना बंद किया जाय क्योंकि बहुत कह चुके आप सब अब हमे दरोगा साब की चाहत पूरी करनी चाहिये और कहने के बजाय कुछ करना चाहिये. तो हे भद्रजनों, हे छात्रों क्या मुंतजर अल जैदी से तुम सबने कुछ नहीं सीखा. क्या दुनिया की इतनी बड़ी घटना बिना सीख के दफ़्न हो गयी. तो हम अपील करते हैं देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्रों, पत्रकारों, व देश के भद्र जनों से कि इसका कार्यान्वयन अब किया जाय और दरोगा जी की इच्छा पूरी हो. बुश का आना एक बार हुआ था पर इनका तो ठिकाना ही यही है हम इनके दिये बयान को झूठा न साबित होने दें.
उसी साक्षात्कार में दरोगा साब ने यह भी कहा कि मुझे पता ही नहीं था कि अनिल चमड़िया दलित हैं यह सच्चाई है सच में उन्हें नहीं पता था कि अनिल चमड़िया दलित हैं दरअसल अपनी इस व्यस्त जिंदगी में उन्हें पढ़ने लिखने का कहाँ समय मिल पाता है शाम हुई तो खान-पान चला और यह तो पूरा विश्वविद्यालय जानता है कि फिर रात जल्दी ही सो जाते है सर, ऐसा अमित विश्वास का कहना है अब भला वो झूठ कैसे बोल सकता है शायद इसीलिये एक मात्र नेक छात्र मिथिलेश तिवारी के बाद अमित विश्वास हैं. तो इन्हें कैसे पता चलता कि अनिल चमड़िया दलित हैं ये तो भूमिहार या सवर्ण समझ के नियुक्ति ही किये थे और जब पता चला तो भूल सुधार ली है अब इंसान हैं गलती तो इंसान ही करता है.
कथा समय में छात्र-छात्राओं ने अघोषित बहिस्कार किया २४७ छात्रों में ३०-३५ की ही उपस्थिति रही. पर पहले दिन उपस्थित छात्रों, जिनमे मैं भी सम्मलित हूँ क्या आपने ध्यान से इनका वक्तव्य नहीं सुना ये नये कथाकारों में कोई आंदोलन खड़ा करने की ताकत नहीं देखते भला सोचिये कि जब तक साहित्य में दरोगा मौजूद है किसी की क्या मजाल कि लिखे और जो क्लासिक इन्होंने रचा है वह सब तो आपने पढ़ा ही होगा. पिछले बरस दरोगा जी की नियुक्ति जब हिन्दी वि.वि. के थाने में हुई या कहें जब इनका तबादला हुआ शायद तबादला शब्द उन्हें भी प्रिय लगे तो विश्वविद्यालय में लोकतंत्र लाने की बात कर रहे थे पर लोकतंत्र ऐसी चीज है जो बड़े संघर्ष से मिलती है इस समय महगायी इतनी बढ़ गयी है और लोकतंत्र इतना कम हो गया है कि पूरे देश में लोकतंत्र के लाले पड़े हैं सो जितना भी लोकतंत्र मिला अकेले रख लिये जो बचा सो रिश्तेदारों को दे दिया उसके बाद जाति बिरादरी को अब बचा नहीं तो छात्रों को खाक लोकतंत्र देते सो या तो इनसे लोकतंत्र छीन लिया जाय या फिर इसी तानाशाही में जिया जाय पर इसमे भी दिक्कत है कि हर वक्त ये खुद भी लोकतंत्र लेकर नहीं चलते, उन्हें इसके छीने जाने का भय है तो कभी राकेश श्रीवास्तव तो कभी नदीम हसनैन, कभी अनिल राय अंकित को दिये रहते हैं. तो सबसे बड़ी समस्या है लोकतंत्र को पाने की दोस्तों, यह एक सब्र का काम है. अभी दलित अध्यापक कारुन्यकरा और सुनील कुमार व कुछ अन्य छात्रों का इनकाउंटर होना बाकी है. आप इंतजार करें.
तो देश के भूमिहारों एक हो, तुम मुझे घूस दो मैं तुम्हें नौकरी दूंगा, दलितों विश्वविद्यालय छोड़ो, छात्राओं अपने कमरे में कैद रहो, यह विश्वविद्यालय तब-तक तरक्की नहीं कर सकता जब तक चोरों की जमात विश्वविद्यालय पर काबिज नहीं हो जाती. शायद यही वे परिवर्धित नारे हैं जो दरोगा साब के मन-मस्तिस्क में गूंजते हैं जिससे वे लोकतंत्र बहाल करना चाहते हैं.

सनातन सिस्टम में भी फैसला करने का अधिकार पण्डितों व भूमिहारों के हाथ में था- विजय प्रताप

विजय प्रताप राजस्थान पत्रिका के पत्रकार हैं.
अनिल चमड़िया एक 'इडियट' टीचर है। ऐसे 'इडियट्स' को हम केवल फिल्मों में पसंद करते हैं। असल जिंदगी में ऐसे 'इडियट' की कोई जगह नहीं। अभी जल्द ही हम लोगों ने 'थ्री इडियट' देखी है। उसमें एक छात्र सिस्टम के बने बनाए खांचे के खिलाफ जाते हुए नई राह बनाने की सलाह देता है। यहां एक अनिल चमड़िया है, वह भी गुरू शिष्य परम्परा की धज्जियां उड़ाते हुए बच्चों से हाथ मिलाता है, उनके साथ एक थाली में खाता है। उन्हें पैर छूने से मना करता है। कुल मिलाकर वह हमारी सनातन परम्परा की वाट लगा रहा है। महात्मा गांधी के नाम पर बने एक विष्वविद्यालय में यह प्रोफेसर एक संक्रमण की तरह अछूत रोग फैला रहा है। बच्चों को सनातन परम्परा या कहें कि सिस्टम के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहा है। दोस्तों, यह सबकुछ फिल्मों में होता तो हम एक हद तक स्वीकार्य भी कर लेते। कुछ नहीं तो कला फिल्म के नाम पर अंतरराश्ट्ीय समारोहों में दिखाकर कुछ पुरस्कार-वुरस्कार भी बटोर लाते। लेकिन साहब, ऐसी फिल्में हमारी असल जिंदगी में ही उतर आए यह हमे कत्तई बर्दाश्त नहीं। 'थ्री इडियट' फिल्म का हीरो एक वर्जित क्षेत्र (लद्दाख) से आता था। असल जिंदगी में यह 'इडियट' चमड़िया (दलित) भी उसी का प्रतिनिधित्व कर रहा है। ऐसे तो कुछ हद तक 'थ्री इडियट' ठीक थी। हीरो कोई सत्ता के खिलाफ चलने की बात नहीं करता। चुपचाप एक बड़ा वैज्ञानिक बनकर लद्दाख में स्कूल खोल लेता है। लेकिन यहां तो यह 'इडियट' सत्ता के खिलाफ भी लड़कों को भड़काता रहता है। हम शुतुमुर्ग प्रवृत्ति के लोग सत्ता व सनातन सिस्टम के खिलाफ ऐसी बाते नहीं सुन सकते।सो, साथियों हमारे ही बीच से महात्मा गांधी अंतरराश्ट्ीय हिंदी विष्वविद्यालय के कुलपति या यूं कहें कि सनातन गुरुकुल परम्परा के रक्षकद्रोणाचार्य के अवतार वी एन राय साहब ने इस परम्परा की रक्षा का बोझ उठा लिया है। वह अपनी एक पुरानी गलती (जिसमें कि उन्होंने छात्रों के बहकावे में आकर चमड़िया को प्रोफेसर नियुक्त करने की भूल की) सुधारना चाहते हैं। राय साहब को अब पता चल गया है कि गलती से एक कोई एकलव्य भी उनके गुरुकुल में प्रवेश पा चुका है। दुर्भाग्यवश अब हम लोकतंत्र में जी रहे हैं (नहीं तो कोई अंगुली काटने जैसा ऐपीसोड करते) इसलिए चमड़िया को बाहर निकालने के लिए थोड़ा मुष्किल हो रहा है। तब एकलव्य के अंगुली काटने पर भी इतनी चिल्ल-पौं नहीं मची थी जितने इस कथित लोकतंत्र में कुछ असामाजिक तत्व कर रहे हैं। राय साहब आपके साथ हमें भी दुख है कि इस सनातन सिस्टम में लोकतंत्र के नाम पर ऐसे चिल्ल-पौं करने वालों की एक बड़ी फौज तैयार हो रही है। आपने ‘साधु की जाति नहीं पूछने वाली’ मृणाल पाण्डे जी के साथ अपने ऐसे इडियटों को सिस्टम से बाहर करने का जो फैसला किया है, वो अभूतपूर्व है। इसी इडियट ने हमारी मुख्यधारा की मीडिया के सामने आइना रख दिया था, जिसकी वजह से हमें कुछ दिनों तक आइनों से भी घृणा होने लगी थी। हम आइनें में खुद से ही नजर नहीं मिला पा रहे थे। वो तो धन्य हो मृणाल जी का जिन्होंने "साधु को आइना नहीं दिखाना चाहिए उससे केवल ज्ञान लेना चाहिए" का पाठ पढाया.
ठीक ही किया जो अपने विष्णु नागर जैसे छोटे कद के आदमी को मृणाल जी व खुद के समकक्ष बैठाने की बजाए उनका इस्तीफा ले लिया। हमारे सनातन सिस्टम में सभी के बैठने की जगह तय है। उसे उसके कद के हिसाब से बैठाना चाहिए। मृणाल जी की बात अलग है। वो कोई चमाइन नहीं, पण्डिताइन हैं, उनका स्थान उंचा है। सनातन सिस्टम में भी फैसला करने का अधिकार पण्डितों व भूमिहारों के हाथ में था, आप उसे जिवित किए हुए हैं हिंदू सनातन धर्म को आप पर नाज है।साहब आप तो पुलिस में भी रहे हैं। हम जानते हैं कि आपको सब हथकंडे आते हैं। एक और दलितवादी जिसका नाम दिलीप मंडल है आप की कार्यषैली पर सवाल उठा रहा है। कहता है कि आपने एक्जिक्यूटिव कांउसिल से चमड़िया को हटाने के लिए सहमति नहीं ली। उस मूर्ख को यह पता ही नहीं की द्रोणाचार्य जी को एकलव्य की अंगुली काटने के लिए किसी एक्जिक्यूटिव कांउसिल की बैठक नहीं बुलानी पड़ी थी। आप तो फैसला "आन द स्पाट" में विश्वाश करते हैं। सर जी, यह तो लोकतंत्र के चोंचले हैं। और आप तो पुलिस के आदमी हैं, वहां तो थानेदार जी ने जो कह दिया वही कानून और वही लोकतंत्र है। लोग कह रहे हैं, साहब कि जिस मिटिंग में चमड़िया को हटाने का फैसला हुआ उसमें बहुत कम लोग थे। उन्हें क्या पता कि जो आये थे वह भी इसी शर्त पर आए थे कि सनातन सिस्टम को बचाए रखने के लिए सभी राय साहब को सेनापति मानकर उनका साथ देंगे। जो खिलाफ जाते आप ने बड़ी चालकी से उन्हें अलग रख दिया। वाह जी साहब, इसी को कहते हैं सवर्ण बुद्धि। आप वहां हैं तो हमें पूरा भरोसा है कि वह विष्वविद्यालय सुरक्षित (और ऐसे भी साहब जहां पुलिस होगी वहां सुरक्षा तो होगी ही) हाथों में है। साब जी, हमने गांव के छोरों से कह दिया है - यह लंठई-वंठई छोड़ों। इधर-उधर से टीप-टाप कर बीए, ईमे कर लो। बीयेचू चले जाओ, कोई पंडित जी पकड़ कर दुई चार किताबे टीप दो। फिर तो आप हईये हैं। एचओडी नहीं तो कम से कम प्रुफेसर-व्रुफेसर तो बनवाईये दीजिएगा। और साहब हम आपके पूरा भरोसा दिलाते हैं यह लौंडे 'अनिल चमड़िया' जैसा इडियट नहीं 'अनिल अंकित राय' जैसा चतुर बनकर आपका नाम रौशन करेंगे।
नई पीढ़ी ब्लाग से साभार

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

एक सही नियुक्ति को भी खा गये विभूति नरायन राय- युवा कथाकार चन्दन पान्डेय


परसों रात साढ़े ग्यारह बजे हिसार के होटल में चेक-इन कर रहा था जब चन्द्रिका का फोन आया। उसके मार्फत यह खबर मिली कि अनिल चमड़िया को महात्मा गान्धी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया। इस कुकर्म को चाहे जो नाम दिया जाये, इसके पक्ष में जो तर्क रखे जायें, मैं यही समझ पाया कि अनिल चमड़िया की नौकरी छीन ली गई। कुछ बड़े नामों की एक मीटिंग बुलाई गई और कुछ नियमों का आड़ ले सब के सब उनकी नौकरी खा गये।

हमारे समाज से विरोध का स्वर तो गायब हो ही रहा है, विरोध में उठने वाली आवाजों के समर्थक भी कम हो रहे हैं। यह सरासर गलत हुआ। मेरे पास एक तल्ख उदाहरण है। बचपन की बात है, गाँव में जब हम नंग-धड़ंग बच्चों के बीच कोई साफ सुथरा कपड़ा पहन कर आ जाता था, विशेष कर चरवाही में, तो बड़ी उम्र के लड़के उन बच्चों का मजाक उड़ाते थे और कभी कभी पीट भी देते थे। किसी ना किसी बहाने से,उन बच्चों को जानबूझकर मिट्टी में लथेड़ देते थे। आप समझ गये होंगे मैं कहना क्या चाहता हूँ?
वजहें जो भी हों सच यह है कि अनिल चमड़िया के विशद पत्रकारिता अनुभव से सीखने समझने के लिये विश्वविद्यालय तैयार नही था। वरना जिस कुलपति ने नियुक्ति की, उसी कुलपति को छ: महीने में ऐसा क्या बोध हुआ कि अपने द्वारा की गई एक मात्र सही नियुक्ति को खा गया।(मैं चाहता हूँ कि पिछली पंक्ति मेरे मित्रों को बुरी लगे)। मृणाल पाण्डेय, कृष्ण कुमार, गोकर्ण शर्मा, गंगा प्रसाद विमल और ‘कुछ’ राय साहबों ने अनिल की नियुक्ति का विरोध किया तो इसका निष्कर्ष यही निकलेगा कि पत्रकारिता जगत की उनकी समझ कितनी थोथी है? यह समय की विडम्बना है कि पत्रकारिता जगत में सिर्फ और सिर्फ सम्बन्धो का बोलबाला रह गया है। कितने पत्रकार मित्र ऐसे हैं जो नींद में भी किसी पहुंच वाली हस्ती से बात करते हुए पाये जाते हैं।

आश्चर्य इसका कि कई लोग यह कहते हुए पाये गये: अनिल को विश्वविद्यालय के विपक्ष में बोलने की क्या जरूरत थी। इन गये गुजरे लोगों को यह समझाने की सारी कोशिशे व्यर्थ हैं कि लोकतंत्र में विरोध की आवाज उठाना कोई ऐसा अपराध नहीं है जिसकी सजा में किसी की नौकरी छिन जाये। वर्धा में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसके खिलाफ सख्त आवाज उठनी चाहिये।

ये हर कोई जानता है कि पात्रता के बजाय सम्बन्धों और ताकत के सहारे चल रही इस दुनिया में विभूति नारायण राय को कोई दोषी नहीं ठहरायेगा। जिस एक्ज्यूटिव काउंसिल के लोगों ने इस धत-कर्म में कुलपति का साथ दिया है उन्हे भी उनका हिस्सा दिया जायेगा। वैसे भी 1995 से अखबार देखता पढ़ता रहा हूँ पर आज तक मृणाल का कोई ऐसा आलेख या कोई ऐसी रिपोर्टिंग नही देखी जिससे लगता हो कि ये पत्रकार हैं या कभी रही हैं। हाँ उदय प्रकाश की एक कहानी में किसी मृणाल का जिक्र आता है जो दिनमान या सारिका में “अचार कैसे डाले” जैसे लेख लिखती है। कुल बात यह कि मृणाल या दूसरे ऐसी पात्रता नही रखते कि वो किसी की नौकरी खा जाये।

अनिल जी, हम लोग कथादेश में तथा अन्य जगहों पर आपके लेख पढ़ते हुए बड़े हुए हैं। आपसे बहुत कुछ सीखा है। आप एक दफा भी यह बात अपने मन में ना लाना कि आपसे कोई चूक हो गई। आप इस तुगलकी फरमान के खिलाफ लड़ाई जारी रखिये। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आप इस लड़ाई में चापलूसों की फौज के सारे तर्क ध्वस्त कर देंगे और ताकतवर जुगाड़ियों को परास्त करेंगे, इस बात का भरोसा है।
चन्द्रिका.मीडिया मेल से प्राप्त

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

कथाकारों, सामंतवाद के गढ़ में आपका स्वागत है.

प्रो. असगर वजहात, संजीव, चित्रा मुदगल, वीरेन्द्र यादव, अब्दुल बिस्मिल्लाह, गंगाप्रसाद विमल, हरि भटनागर, अजय नावरिया, भगवान दास मोरवाल, एस.आर. हरनोट, वंदना राग, महुआ माझी, राजेन्द्र राजन, गीत चतुर्वेदी, मनोज रूपड़ा, पंकज मित्र, मो. आरिफ, तेजेन्द्र शर्मा, मृदुला शुक्ला, वीरेन्द्र मोहन, मीनाक्षी जोशी, बसंत त्रिपाठी, प्रमोद कुमार तिवारी, सूरज प्रकाश, अजीत राय, आशा पाण्डेय, विरेन्द्र मोहन, से.रा. यात्री, आप सब को हिन्दी विश्वविद्यालय के कथा समय में आमंत्रित किया गया है. हिन्दी कथा साहित्य की दो दशकों कॊ यात्रा में यदि सबसे अच्छे कथाकार और उपन्यासकार विभूतिनरायण राय हैं तो, तो बेरोजगारी की स्थिति में यह एक पंक्ति किसी भी बेरोजगार आगंतुक को रोजगार दे सकती है और यहाँ वैकेंसी नहीं निकलती, आदमी निकल आया काम का, तो बैकेंसी बन जाती है. तो हे भद्रजनों, कथाकारों हम आपका स्वागत करते हैं कि “जिन पंचटीला नईं देख्या ओ न भया कथाकार”.
पिछले दिनों हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रशासन द्वारा की जा रही तानाशाही और सवर्णवादी रूप आपको अखबारों और ब्लागों के माध्यम से शायद पता चला ही हो जिस पर विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने लिखा था. विभूतिनरायण राय ने शायद उन छात्रों को बुलाकर बात-चीत करने का प्रयास भी किया था, महोदय यहाँ छात्रों को दलाल बनाने की यही प्रक्रिया है. खैर, यह कथा का समय है अक्सर कई पाप करने के बाद ब्रहमणों की व सवर्णों की यह आदत होती है कि वे कथा सुन लेते हैं और पाप से मुक्त हो जाते हैं. राय साब यानि दरोगा जी ने अपने थाने में कथा रखी है और आप जैसे पंडितों को आमन्त्रित किया है ताकि उन्हें कई कुकर्मो के बाद एक सुकर्म करके थोड़ा मुक्ति का एहसास हो. इस तरह की कथा वे अक्सर विश्वविद्यालय में करवाते रहते हैं जिनके विषय से आपको लगेगा कि क्रांति अब हुई की तब और कई बार माईक पर क्रांति करते भी हैं अक्सर छद्म प्रगतिशील यही करते हैं. यह उनका पी.आर.ओ. प्रोग्राम है जिसमे वे साहित्यिक बुद्धिजीवियों के बीच अपनी साख मजबूत करते हैं. तो भद्रजनों सामंतवाद के गढ़ में हम आपका स्वागत करते हैं. आप सब कहानी के कुछ बीज तलासियेगा आपको उगे उगाये पौधे मिल जायेंगे, कहानी के पेड़ मिल जायेंगे, उपन्यासों के लहलहाते खेत मिल जायेंगे. इस पथरीली जमीन में कथा की उर्बरा शक्ति बहुत है, उनके तकले सिरों को झांकियेगा जिनके सिर में अब बाल नहीं बचे हैं बची है तो बस चमकती हुई खोपड़ी पर वहीं कहीं चमकती खोपड़ियों में होगा आपका पात्र. जो दिल तो बच्चा है थोड़ा कच्चा है अभी भी गाता रहता है. यहीं पर आपको मिलेंगे प्रख्यात चोर गुरू अनिल राय अंकित, पर अब ये टाई नहीं लगाते इसलिये गुमराह मत होइयेगा और ये चोर जैसे नहीं मीडिया विभाग के हेड जैसे दिखते हैं. अगर हो सके तो इन्हें बधाई दे दीजियेगा क्योंकि आभी हाल में ही इनकी नियुक्ति को इ.सी. द्वारा मान्य करवाया जा चुका है अब इनकी चोरी ही इनकी दादागीर बन गयी है कारण कि अनिल अंकित “राय” और विभूतिनरायण “राय” आप समझ गये होंगे, ये जाति बड़ी इफेक्टिब चीज होती है और अगर रिश्तेदारी भी हो तो क्या कहने. यहाँ भी कुछ ऐसा ही मामला है साब.
दरोगा साब हर रोज इनकाउंटर के मूड में रहते हैं कभी किसी दलित छात्र का तो कभी किसी अध्यापक का आप आयेंगे तो पता चलेगा कि हाल में कौन-कौन शिकार हुआ है. इस इनकाउंटर को कहानी की भाषा में समझिये यह इलाहाबाद वाला इनकाऊंटर नहीं है. दलित अध्यापक कारुन्यकरा को रोज एक नोटिस मिलती है उनसे आप मिलियेगा तो पूछियेगा कि ब्रह्मणवाद मुर्दावाद गाली किसके लिये है. विश्वविद्यालय का हर अध्यापक इस तानाशाही पर अंदर-अंदर सुगबुगाता है पर पेट का सवाल है सो दरोगा साब से कुछ नहीं बोलता.
और थोड़ा धीरे से कान लगाकर सुनिये ये जो आपका स्वागत करने के लिये पालीवाल जी हैं इन्होंने पिछले दिनों किसी महिला कर्मचारी के साथ छेड़खानी की थी और और पता चला कि नाड़ी और धड़कन पर बात करते-करते कुछ प्रेक्टिकल...............अब ज्याने दीजिये, बुजुर्ग हैं ६० साल के पर ऐसा ही कुछ कई दिनों तक विश्वविद्यालय में गूंजता रहा. आप जब इनसे हाथ मिलाइये तो जरा बच के रहिये और आप किस कमरे में ठहरे हैं यह कतई मत बताईयेगा, सोते समय कुंडी बंद कर लीजियेगा और जब भी मिलियेगा दो-चार लोगों के साथ बस...हां ये इस बात से दुखी हैं कि स्नोवाबार्नों क्यों नहीं आ रही हैं. विशेष कर्तव्य अधिकारी राकेश जी बहुत नेक इंसान हैं अक्सर थानेदार साब को काबू में कर लेते हैं. एक दिन एक लड़्की को क्लास में बुलाकर बोले कि ये लड़की बिकनी पहने तो कैसी लगेगी यह आपको अटपटा लगा होगा पर महिलाओं के बारे में यहाँ की छात्राओं के बारे में आला अधिकारियों के विचार ऐसे ही हैं. प्राक्टर मनोज कुमार के किस्से किसी दिन इत्मिनान से बताऊंगा पर नये साल पर इन्होंने छात्र-छात्राओं को तोहफा दिया और पुरुष छात्रावास में छात्राओं के जाने पर प्रतिबंध लगा दिया. शायद किसी छात्रा ने किसी छात्र को फटकारा था और सभी छात्राऒ पर प्रतिबंध। प्रतिबंधित करने का आदेश सामंत के मुंसी राय साब ने दिया. बाकी कहानिया आप यहाँ आ के ढूंढ़ियेगा. हमने अपने कैमरे से १३ जनवरी की शाम को कुछ दिलचस्प फोटो खींचे हैं जो आपको मुफ्त मिल जायेंगे और आप इन चेहरों को पहचानियेगा जबकि वे आपके इर्द गिर्द ही रहेंगे. हिन्दी विभाग के एक शिक्षक-शिक्षिका की कहानी.......व कामिल बुल्के अंतरराष्ट्रीय छात्रावास की कई सारी काहानियां जो हर दो तीन घंटे में पुरानी हो जाती है, उपन्यास के कथानक सुबह-सुबह झाड़ू के साथ बुहार दिये जाते हैं ये सब आपको बताउंगा और तब तक बताऊंगा जब तक ये सुधरते नहीं, जबकि मैं जानता हूँ कि ये नहीं सुधरेंगे।
वर्धा मेल से प्राप्त १३ तारीख की फोटो भी आप यहीं पर देखेंगे ऐसी मेल में सूचना थी.