शनिवार, 30 जनवरी 2010

एक अपील छात्रों, पत्रकारों और देश के भद्रजनों से

विस्फोट फार मीडिया पर दरोगा साब ने एक साक्षात्कार में कहा- कहने दीजिये कहने से क्या होता है, यह जो कुछ उनके बारे में छप रहा था उसकी प्रतिक्रिया के तौर पर था. अगर कहने दीजिये कहने से कुछ नहीं होता, बोलने दीजिये बोलने से कुछ नहीं होता, लिखने दिजीये लिखने से कुछ नहीं होता, तो हे दुनिया के लेखकों वक्ताओं यह दरोगा आपको निकम्मा समझता है, हे सुधी पत्रकारों इस दरोगा से पूछो कि क्या करें कि कुछ हो और हे साहित्य शिल्पियों तुमने अपने जीवन में परिश्रम करके जो कुछ गढ़ा है उसे यह तथाकथित पुलिस कथाकर व्यर्थ बता रहा है. क्योंकि अब तक आप लोगों ने समाज की संरचना और घटना को कहा ही तो है. तो कहने से कुछ नही होता तो क्या भूमिहार दरोगा की बात मान ली जाय और अब कहना बंद किया जाय क्योंकि बहुत कह चुके आप सब अब हमे दरोगा साब की चाहत पूरी करनी चाहिये और कहने के बजाय कुछ करना चाहिये. तो हे भद्रजनों, हे छात्रों क्या मुंतजर अल जैदी से तुम सबने कुछ नहीं सीखा. क्या दुनिया की इतनी बड़ी घटना बिना सीख के दफ़्न हो गयी. तो हम अपील करते हैं देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्रों, पत्रकारों, व देश के भद्र जनों से कि इसका कार्यान्वयन अब किया जाय और दरोगा जी की इच्छा पूरी हो. बुश का आना एक बार हुआ था पर इनका तो ठिकाना ही यही है हम इनके दिये बयान को झूठा न साबित होने दें.
उसी साक्षात्कार में दरोगा साब ने यह भी कहा कि मुझे पता ही नहीं था कि अनिल चमड़िया दलित हैं यह सच्चाई है सच में उन्हें नहीं पता था कि अनिल चमड़िया दलित हैं दरअसल अपनी इस व्यस्त जिंदगी में उन्हें पढ़ने लिखने का कहाँ समय मिल पाता है शाम हुई तो खान-पान चला और यह तो पूरा विश्वविद्यालय जानता है कि फिर रात जल्दी ही सो जाते है सर, ऐसा अमित विश्वास का कहना है अब भला वो झूठ कैसे बोल सकता है शायद इसीलिये एक मात्र नेक छात्र मिथिलेश तिवारी के बाद अमित विश्वास हैं. तो इन्हें कैसे पता चलता कि अनिल चमड़िया दलित हैं ये तो भूमिहार या सवर्ण समझ के नियुक्ति ही किये थे और जब पता चला तो भूल सुधार ली है अब इंसान हैं गलती तो इंसान ही करता है.
कथा समय में छात्र-छात्राओं ने अघोषित बहिस्कार किया २४७ छात्रों में ३०-३५ की ही उपस्थिति रही. पर पहले दिन उपस्थित छात्रों, जिनमे मैं भी सम्मलित हूँ क्या आपने ध्यान से इनका वक्तव्य नहीं सुना ये नये कथाकारों में कोई आंदोलन खड़ा करने की ताकत नहीं देखते भला सोचिये कि जब तक साहित्य में दरोगा मौजूद है किसी की क्या मजाल कि लिखे और जो क्लासिक इन्होंने रचा है वह सब तो आपने पढ़ा ही होगा. पिछले बरस दरोगा जी की नियुक्ति जब हिन्दी वि.वि. के थाने में हुई या कहें जब इनका तबादला हुआ शायद तबादला शब्द उन्हें भी प्रिय लगे तो विश्वविद्यालय में लोकतंत्र लाने की बात कर रहे थे पर लोकतंत्र ऐसी चीज है जो बड़े संघर्ष से मिलती है इस समय महगायी इतनी बढ़ गयी है और लोकतंत्र इतना कम हो गया है कि पूरे देश में लोकतंत्र के लाले पड़े हैं सो जितना भी लोकतंत्र मिला अकेले रख लिये जो बचा सो रिश्तेदारों को दे दिया उसके बाद जाति बिरादरी को अब बचा नहीं तो छात्रों को खाक लोकतंत्र देते सो या तो इनसे लोकतंत्र छीन लिया जाय या फिर इसी तानाशाही में जिया जाय पर इसमे भी दिक्कत है कि हर वक्त ये खुद भी लोकतंत्र लेकर नहीं चलते, उन्हें इसके छीने जाने का भय है तो कभी राकेश श्रीवास्तव तो कभी नदीम हसनैन, कभी अनिल राय अंकित को दिये रहते हैं. तो सबसे बड़ी समस्या है लोकतंत्र को पाने की दोस्तों, यह एक सब्र का काम है. अभी दलित अध्यापक कारुन्यकरा और सुनील कुमार व कुछ अन्य छात्रों का इनकाउंटर होना बाकी है. आप इंतजार करें.
तो देश के भूमिहारों एक हो, तुम मुझे घूस दो मैं तुम्हें नौकरी दूंगा, दलितों विश्वविद्यालय छोड़ो, छात्राओं अपने कमरे में कैद रहो, यह विश्वविद्यालय तब-तक तरक्की नहीं कर सकता जब तक चोरों की जमात विश्वविद्यालय पर काबिज नहीं हो जाती. शायद यही वे परिवर्धित नारे हैं जो दरोगा साब के मन-मस्तिस्क में गूंजते हैं जिससे वे लोकतंत्र बहाल करना चाहते हैं.

5 टिप्‍पणियां:

  1. अरे कमीने तुम अपना नाम क्यों नहीं लिखते हो .चमाडिया साले सोर्स पर नौकरी पा गए तो तीसमार खा बने हो. तुम तो सुमन हो ही . तुम हो ही गंदी नाली के कीड़े . कैसे सुधारोगे

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  2. प्रिय मित्र, अलगू
    मैं गंदी नाली का कीड़ा और तुम मानसरोवर के फूल, अच्छा ये बताओ ये अलगू नाम ही तुम्हें क्यों पसंद आया. सबसे अलग दिखने के लिये न और हो भी सबसे अलग, मसलन तुम जहाँ-जहाँ टिप्पणी करते हो लगता है दरोगा साब ही कर रहे हैं, और मेरे सुधरने का जिम्मा मत उठाओ मैं तबतक नहीं सुधरूंगा जब तक ये सब जो दरोगा और सिपाही मिलकर कर रहे हैं ये ठीक नहीं करने लगते और मैं जानता हूँ कि ये ठीक नहीं करेंगे, ये नहीं सुधरेंगे.

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  3. अलगू तुम किसके पालतू कुत्ते हो. किसका खाकर भौंक रहे हो. कमीने इस पूरे मामले से अलग ही रहो तो अच्छा नहीं तो तुम जैसे लोगों से तुम्हारी भाषा में निपटना आता है.

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  4. तो क्या मान लिया जाय की ब्लॉग अब गुसलखाने की जगह हो गई है . क्योकी यहाँ कीचड ही ज्यादा दिखाई दे रहा है . आरोप प्रत्यारोप के इस झगड़े से क्या मिलेगा

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  5. MOHALLA, JANTANTR, BHADAS... har jagah ANIL CHAMDIYA ke khilaaf aur V.N.Rai ke paksh me jitne bhi comments aaye hain wo sab wardha university ke JANSANCHAR VIBHAG ke students hain...
    kehne ki jarurat nhi hai ki ye sab CHOR GURU JI ke 'pat shishy ' hain... esliye to kisi ko thik se HINDI likhne bhi nhi aati hai... JUTE RAHO ' CHOR GURU' KE 'CHOR CHELON'....

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