गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

विभूति जी सुनिये अनिल चमड़िया सराब पीते हैं, गलत करते हैं न

यह छूठ जब कुलपति विभूति नारायण राय द्वारा फैलाया गया तो अनिल चमड़िया ने एक लेख लिखा था जो कई अखबारों में छपा था इसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है- वैसे यहाँ यह मसला नहीं था कि सराब पीने पर बात की जाती पर इससे यह पता जरूर लगाया जा सकता है कि अनिल चमड़िया को किस-किस रूप में इस विश्वविद्यालय में प्रताड़ित होना पड़ा है और अन्य ऐसे कितने अध्यापक हैं जो प्रताड़ित हो रहे हैं पर जुबान नहीं खोल पा रहे हैं।

सत्ता का क्रूर प्रचार तन्त्र /अनिल चमड़िया
अगर आप बिना दूध की चाय पीते हों और उसे शीशे के गिलास में पीते हो तो आपको आसानी से शराबी कहा जा सकता है. दिन में कई बार ऐसी चाय पीते हों और कई लोगों के साथ पीते हो तो आपके घर को शराबियों के अड्डे के रूप में प्रचारित किया जा सकता है. हमारे समाज में प्रचार का गहरा असर है. प्रचार का एक ढाँचा है जिस पर समाज में वर्चस्व रखने वालों का नियंत्रण हैं. बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए जब गणेश की मूर्तियों के दूध पीने के करिश्मे को वास्तविकता के रूप में दुनिया के बड़े हिस्से में कई घंटों में स्थापित कर दिया गया था. यह काम किसी मीडिया के प्रचार के जरिये नहीं हुआ था. मीडिया के मंच प्रचार के माध्यम तो हैं लेकिन हर तरह के प्रचार मीडिया द्वारा ही स्थापित नहीं होते हैं. जैसे किसी भी छोटे बड़े संस्थान में किसी के बारे में किसी तरह के प्रचार को जब स्थापित किया जाता है तो उसमें किस माध्यम की भूमिका होती है?दरअसल प्रचार अनिवार्य तौर पर किसी राजनीति से जुड़ा होता है. इसमें सच को देखना बेहद मुश्किल काम होता है.अमेरिका ने इराक के राष्ट्रपति शहीद सद्दाम के खिलाफ लंबे समय तक अभियान चलाया. अमेरिका ने कहा कि इराक के पास जनसंहारक रासायनिक हथियार हैं और उससे पूरी दुनिया में तबाही लाई जा सकती है. यह अभियान लगातार चलता रहा और जब से ये अभियान शुरू हुआ तब से उसे सच मानने वालों की संख्या तब तक बढ़ती रही जबतक कि अमेरिका ने सबसे पुरानी सभ्यताओं के बीच विकसित देश इराक को तबाह नहीं कर दिया. बाद में यह पता चला कि इराक के पास ऐसे हथियार नहीं थे . इस प्रचार का मकसद केवल सद्दाम हुसैन को खत्म करना था और सीना तानकर खड़े होने वाले इराक जैसे देश को झुकना सिखाना था. बाद में दुनिया भर की जनवादी ताकतें हाथ मलती रहीं लेकिन उससे क्या होता है.प्रचार के ढांचे को समझने के लिए एक चीज जरूरी होती है कि किसी भी तरह के प्रचार को किस तरह से खड़ा किया जा सकता है. एक उदाहरण के जरिये इसे समझा जा सकता है. यौन उत्पीड़न के खिलाफ शिकायत दर्ज करने वाली एक संस्था की समिति के एक सदस्य ने एक दिन कई लोगों के बीच खड़े होकर संस्था की अध्यक्ष से कहा कि वो उन्हें अकेले में यौन उत्पीड़न की एक शिकायत पर की गई जांच की रिपोर्ट को नहीं दिखा सकता है. अध्यक्ष जांच समिति के उस सदस्य को भौचक देखती रही. उसे आश्चर्य हुआ कि समिति का सदस्य उसे ऐसा क्यों कह रहा है जबकि उन्होंने तो कभी भी उस सदस्य से उस रिपोर्ट को दिखाने के लिए नहीं कहा. अकेले या दुकेले की बात ही कहाँ से उठती है. दरअसल समिति का सदस्य जिसके खिलाफ शिकायत थी उसके प्रति सहानुभूति रखता था. वह दो बातों को ध्यान में रखकर अपने प्रचार की सामग्री को बड़े दायरे में भेजना चाहता था. पहली बात तो वह तकनीकी रूप से गलत नहीं बोल रहा है इसके प्रति सावधनी बरत रहा था. दूसरे वह यह संदेश भेजना चाहता था कि संस्था की अध्यक्ष इस मामले में कुछ खास व्यक्तिगत दिलचस्पी ले रही है. जिन लोगों ने समिति के सदस्य से संस्था की अध्यक्ष से यह कहते सुना उन्होंने तत्काल ही दूसरे लोगों से कहना ये शुरू कर दिया कि संस्था की अध्यक्ष जाँच समिति की रिपोर्ट को अकेले देखना चाहती थी. इस तरह से एक प्रचार अभियान की शुरुआत होती है . जाहिर सी बात है कि जो इस तरह का प्रचार अभियान विकसित करना चाहता है वह इस बात को लेकर अपनी पक्की अवधरणा बनाए हुए है कि समाज में प्रचार का जो ढाँचा विकसित है यह सामग्री उसकी खुराक के रूप में इस्तेमाल हो जाएगी. लेकिन अध्यक्ष इस तरह के प्रचार की बारीकियों को नहीं समझती थी और केवल अपने आदर्श और नैतिकता के तहत जाँच को एक अंजाम तक पहुँचते देखना चाहती थी. इस तरह के प्रचार बड़े स्तर पर किस तरह से विकसित किए जाते हैं इसे संसद की रिपोर्टिंग के दौरान भी इस लेखक ने अनुभव किया. संसद में अक्सर सवाल उठाए जाते हैं कि फलां समाचार पत्रा में इस आशय के समाचार प्रकाशित हुए हैं. सरकार को इस पर जवाब देना चाहिए. दूसरी तरफ स्थिति यह है कि समाचार पत्रा यदि किसी भी तरह के समाचार को प्रकाशित करता है तो वह गलत भी हो सकता है और बेबुनियाद भी हो सकता है. लेकिन वह इसके लिए किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है. उसे जवाबदेह होना चाहिए ये एक अपेक्षा है और ये एक दूसरी बात है.अब अखबार में छपने के बाद संसद का सदस्य उसे अपना आधर बना लेता है. प्रचार का आधर किस तरह से विकसित किया जा रहा है इसे समझना जरूरी होता है. फिर संसद में पूछे गए सवाल पर अखबार ये समाचार बना सकता है कि संसद में ये सवाल पूछा गया. संसद में सवाल के पहुंचने के बाद प्रचार को विश्वसनीयता का भी एक आधर मिल जाता है. संसद के प्रति समाज का एक भरोसा है. इस तरह बार बार उलटपफेर से एक प्रचार अभियान विकसित होता है. समाज और सत्ता पर वर्चस्व रखने वाले लोग इसी तरह से प्रचार के ढाँचे का इस्तेमाल करते हैं. माध्यमों से वे अपने प्रचार की गति को तेज करते हैं. मीडिया ने इस काम में बहुत मदद की है.समाज में खबरें सुनना, पढ़ने और देखने की आदत का विकसित होना ही महत्वपूर्ण नहीं होता है बल्कि उसमें किसी भी उस तक पहुँचने वाली सामग्री के भीतर देख पाने की क्षमता का विकास भी जरूरी होता है. वह किसी भी सामग्री का विश्लेषण करने की क्षमता का विकास नहीं करेगा तो वह हर वक्त शासकों के प्रचार अभियान का शिकार होगा. काली चाय शराब के रूप में उसे दिखाई जाएगी वह उसे मानने के लिए अभिशप्त होगा. मीडिया के विस्तार और उसके बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर तो समाज से और भी गहरी दृष्टि विकसित करने की अपेक्षा की जाती है.

3 टिप्‍पणियां:

  1. १.अगर आप बिना दूध की चाय पीते हों और उसे शीशे के गिलास में पीते हो तो आपको आसानी से शराबी कहा जा सकता है.
    यह सिर्फ आपके साथ ही है और किसी के साथ नहीं .
    २.दिन में कई बार ऐसी चाय पीते हों और कई लोगों के साथ पीते हो तो आपके घर को शराबियों के अड्डे के रूप में प्रचारित किया जा सकता है.
    मेरे घर को तो नहीं कहा गया है . जबकि मै भी काली चाय का शौक़ीन हूँ.
    ३. हमारे समाज में प्रचार का गहरा असर है. प्रचार का एक ढाँचा है.
    सही कहा . इसी का तो लाभ उठा रहे है आप. और बलात्कारी अविनाश का देखिये की वह भी लगे हाथ रिन साबुन लगाकर सफ़ेद होने के प्रयास में है.

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  2. kripaya yah bhi padhe
    लगभग पिछले एक सप्ताह से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय पूरी मीडिया (खासकर ब्लॉगिंग जगत) के लिए खबरों का केन्द्रबिन्दु बन गया है. इन खबरों की प्रस्तुति को लेकर एक बात बहुत साफतौर पर समझनी होगी. विश्वविद्यालय में मेरी नियुक्ति को लेकर भले ही लोगों के मन में कई तरह की आशंकाएं होंगी, लेकिन यहां मै स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरी नियुक्ति और अब टर्मिनेशन में किसी भी तरह का, किसी भी स्तर पर कोई दबाव नहीं रहा है. चूंकि विश्विद्यालय एक सांगठनिक ईकाई है जिसके कई मानक होते हैं, नियम कानून होते हैं इसलिए व्यवस्था एवं प्रणाली की निष्पक्षता को लेकर किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है.

    दरअसल पिछले कुछ महीनों से मैं खुद को एक अजीब सी उलझन के बीच असामान्य एवं असहज महसूस कर रहा था. शुरू से ही मेरी नियुक्ति का मामला निर्विवाद नहीं रहा तथा तमाम तरह के कयाश लगाए जा रहे थे. प्रोफेसर पद की नियुक्ति हेतु आवश्यक न्यूनतम योग्यताओं की बात करें तो मुझे इस बात का एहसास हो रहा है कि मै उस पर खरा नहीं उतरता. अपने टर्मिनेशन से शुरू में मैं बहुत आहत था, दुखी था. स्वभाविक रूप से सबसे पहले तो मैंने मीडिया समुदाय खासकर वेबमीडिया को अपने पक्ष में लामबन्द करने की भरपूर कोशिश की और मेरे तमाम मित्रों ने इस पहल में मेरी मदद भी की. लेकिन आज मैं खुद अपने किए को लेकर बेहद शर्मिंदा हूँ और मुझे अब बड़ा अफसोस हो रहा है. आरोप-प्रत्यारोप का जो सिलसिला मैंने शुरू किया था, उससे मेरी बहुत फजीहत हुई है और मैं आत्मग्लानि महसूस कर रहा हूँ. पूरी घटना पर यदि गौर करें तो कुछ बातें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं -

    1. मैंने अपनी नियुक्ति और टर्मिनेशन के सम्बन्ध में विश्वविद्यालय प्रशासन और ई.सी. के निर्णय पर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, वह गलत है. क्योंकि ई.सी. के निर्णय के मूल में मेरी न्यूनतम योग्यताओं का अभाव होना था.

    2. मैं अपनी नियुक्ति की मान्यता को लेकर आरम्भ से ही असमन्जस में था. कभी-कभी इच्छा होती थी कि मैं खुद ही इस्तीफा दे दूं. मुझे याद है कि मैं अपने पी.एच-डी शोधार्थियों के कैरियर और भविष्य को लेकर तमाम तरह की आशंकाओं से खुद को घिरा हुआ महसूस कर रहा था. मेरी योग्यता - अयोग्यता का प्रश्न किसी न किसी रुप में मेरे छात्रों से भी जुड़ा हुआ था. यह अपने आप में हास्यासपद है कि एक गैर पी.एच-डी व्यक्ति विश्वविद्यालय में बतौर शोध निर्देशक कार्यरत हो.

    3. इस बात के पीछे कोई सच्चाई नहीं है कि विश्वविद्यालय प्रशासन खासकर कुलपति वी.एन.राय से मेरे मतभेद थे. वैसे भी ई.सी. के निर्णय में आपसी मतभेद मायने नहीं रखते. इसके बावजूद मैं अपनी नियुक्ति निरस्त होने के पश्चात भावावेश में इस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, जिसके लिए मैं बेहद शर्मिंदा हूँ.

    4. एक्जक्यूटिव काउंसिल के सदस्यगण मेरी नियुक्ति के सम्बंध में अन्तिम निर्णय लेने से पहले सभी पहलुओं पर चर्चा करके ही निर्णय लिए होंगे.

    अतः मित्रों! मेरे मुद्दे को और अधिक तूल न दें, क्योंकि मीडिया में चल रहे तमाम चीजों के बीच मैं अपनी गलती को स्वीकार करता हूँ और महसूस कर रहा हूँ कि इसमें मेरी ही फजीहत हो रही है तथा इन सभी घटनाक्रम के पश्चात मैं अपनी और अधिक फजीहत नहीं चाहता. बहरहाल मैं नियतिवादी नहीं हूँ, फिर भी मानने में कोई परहेज नहीं, जो होना था वह हो गया; गलत हुआ या सही हुआ, इस पर बहुत बहस हो चुकी है. बहस से दूसरों को फायदा हुआ या नुकसान हुआ, मुझे नहीं पता. लेकिन मेरा बहुत नुकसान हुआ है. मेरी छवि बिगड़ी है. यह दीगर बात है कि आप सभी मित्रों की ऐसी मंशा कदापि नहीं रही होगी. अतः आप सब से विनम्र अपील है कि मेरे मुद्दे पर चर्चा-परिचर्चा को बंद कर दें, मुझे बख़्श दें.

    आपका

    अनिल चमड़िया

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  3. उन्होनें तो कुलपति महोदय पर ही इंजाम लगाया कि वो मेरे पीछे पड़े हैं। कहीं आप विश्व सुन्दरी या किसी पार्टी के जाने माने नेता या फिर चोर तो नहीं, जो वीएन राय उनके पीछे पड़े हैं। अनिल चमड़िया के पीछे पड़े रहने के अलावा शायद उनके पास और कोई काम नहीं है, चमड़िया जी को यह अवश्य ज्ञात होगा कि उनको विश्वविद्यालय में कुलपति महोदय ही लेकर आए थे, जब विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में अध्यापकों का अभाव था और उन्होने इस आस से उनकी नियुक्ति भी की थी कि वे छात्र-छात्राओं को पत्रकारिता के गुण सिखाएंगे, पर हुआ कुछ अलग। चमड़ियाजी अपनी कमेटी बनाते रहे, छात्रों को प्रशासन के खिलाफ भड़काने का काम करते रहे। उनके कुछ छात्र तो इतने अच्छे हैं जो कुलपति, प्रति-कुलपति, विभागाध्यक्ष, िशक्षकगण को गाली देने से भी नहीं चूकते। ये बात सभी के संज्ञान में है, पर कहने वाला कोई नहीं? शायद यही िशक्षा आपने छात्रों को दी है, दे भी रहे हैं कि अपने से बड़ों को गाली दें, उनका अनादर करें। बहुत अच्छा पाठ पढ़ाया है आपने।

    अनिल चमड़िया जिस प्रकार का आरोप लगा रहे हैं, यदि उन पर गौर फरमाया जाए तो दूध का दूध और पानी का पानी होने में जरा-सी देर भी नहीं लगेगी। आप वीएन राय पर आरोप लगा रहे हैं कि स्वजातीय लोगों की बातों में आकर आपकी नियुक्ति को निरस्त किया है। यदि ऐसा ही है तो आप इतने माह इस विश्वविद्यालय में कैसे और किस आधार पर टिके रहे? यदि जातिगत ही मामला है तो विश्वविद्यालय में आपको भी पता होगा कि दलित छात्रों की संख्या कितनी है। जहां तक पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग दोनों से तो ज्यादा है। और तो और कुछ विभाग तो ऐसे भी हैं जहां सामान्य वर्ग का एक भी छात्र नहीं है, तो इसको आप क्या कहेंगे- दलितवादी निर्णय? आप तो यहां तक भी कहते हैं कि यहां पढ़ रहे लड़कों के दबाव में आकर वीसी ने आपकी नियुक्ति की थी, कहीं ऐसा सुना है कि किसी विश्वविद्यालय के छात्रों के दबाव में आकर किसी की नियुक्ति हुई हो। तब तो छात्र यदि चाहेगें कि किसी आठ पास या पांचवी फेल को टीचर बना दिया जाए तो क्या वो टीचर बन जाएगा, चाहे उसने सम्बंधित फील्ड में कांट्रीव्यूशन क्यों न किया हो। विश्वविद्यालय में कर्मचारियों की नियुक्ति उसकी योग्यता के आधार पर वीसी या सम्बंधित प्रािधकारी तो नियुक्त कर सकते हैं, पर किसी प्रोफेसर/रीडर/लैक्चरर को नियुक्ति नहीं कर सकते। जब तक वह टीचर बनने की पूर्ण योग्यता नहीं रखता?

    यदि आपको लगाता है कि आपको बिना डिग्री के आधार पर प्रोफेसर बनाये जाने चाहिए तो अपने मित्र और साथीगण जो अभी एम.ए. कर रहे हैं या फिर एम.फिल/पी-एचडी कर रहे हैं, उनको भी सलाह दें कि वे पढ़ाई छोड़ दें, तब भी वे प्रोफेसर बन जाएगें?? मेरा यहां दो बार? लगाने का तात्पर्य केवल इतना है कि सभी लोगों को पढ़ाई छोड़ देनी चाहिए । इसमें मैं भी शामिल हूं, क्योंकि मैंने भी बी.कॉम पास किया है, मुझे भी पी-एचडी नहीं करनी चाहिए क्योंकि पी-एचडी में पूरे-पूरे दो तीन साल के बाद, तब भी संभावना ही है कि टीचर बनूगां या नहीं, पर आप तो बिना डिग्री के पैमाना पूरा कर रहे हैं। रही बात अपनी बसी-बसाई गृहस्थी छोड़कर पराए शहर में आने की, यह तो धन का मोह ही है जब पैसे के खातिर इंसान अपना जिस्म, हत्या, चोरी-डकैती-लूटपाट, यहां तक की अपने मां-बाप को भी बेच देता है, तब आपनी बसी-बसाई घर-गृहस्थी को छोड़कर आना कौन सी बड़ी बात है।

    जिस एक्जीक्यूटिव कमेटी (ईसी) की बात आप कहे रहे हैं, उसमें 18 सदस्य हैं और केवल 8 सदस्यों ने वीसी के कहने पर आपको निकाल दिया। यानि आपके कहने का मतलब यह भी है कि ईसी में जितने भी सदस्य हैं वो नासमझ/अज्ञानी हैं। सारा ज्ञान आप में कूट-कूटकर भरा हुआ है। आपका तो यहां तक कहना है कि वीएन राय के कामकाज के तरीके के कारण विश्णु नागर ने ईसी से इस्तीफा दे दिया है, इसका तात्पर्य यह है कि कुलपति महोदय को आप से सीखना पडे़गा कि किस प्रकार काम किया जाता है तब तो वीएन राय जी को प्रोफेसर न बनाकर आपको अपनी जगह कुलपति बनाना चाहिए? रही बात विष्णु नागर जी के इस्तीफे की तो किस कारण से उन्होंने इसी से इस्तीफा दिया। ये तो उन से अच्छा और कोई नहीं बता सकता? विश्वविद्यालय में जिस प्रकार की गतिविधियां इस समय चल रही हैं, यदि प्रशासन ने जल्द ही कोई उचित कदम नहीं उठाए तो विश्वविद्यालय की गरिमा को धूमिल होने से कोई नहीं बचा सकता।

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