बुधवार, 30 दिसंबर 2009

नये साल की चुनौतीपूर्ण बधाई

साथियों,
ईक्कीसवीं सदी के पहले दशक की समाप्ति की ओर ले जाने वाला यह साल बीत रहा है और हमारा विश्‍वविद्यालय एक मध्ययुगीन काल की तरफ़ लौट रहा है। हम लौट रहे हैं, राजशाही के फ़रमानों जैसे फ़रमान के अंधेरे युग की तरफ़, हमें उन मूल्यों की तरफ़ लौटने पर विवश किया जा रहा है, जिन्हें बीती हुई पीढ़ीयों ने मनुष्‍यता के हित में कुछ सौ साल पहले छोड़ दिया था. आपके छात्रावास तक वह “सूचना”, क्षमा करें, इसे फ़तवा ही कहा जाना चाहिये?, पहुंच चुका होगा जिसमें पुरूष छात्रावास में छात्राओं का प्रवेश निषेध किया जा चुका है.
यह समय था बीते हुए साल के आंकने का, हिन्दी समाज और विश्वविद्यालय के निर्माण पर सोचने का, लेकिन यह सब कुछ नहीं हुआ…… साल बीतने के साथ जिस असमानता को कुछ और कम होना था, जिन मसलों को सुलझ जाना था, उसे एक मध्ययुगीन सामंत की मानसिकता के प्रॉक्टर द्वारा और बढ़ाये जाने का काम किया जा रहा है, जो सड़े-गले मूल्यों को थोप कर छात्र-छात्राओं पर शासन करने का प्रयास कर रहे हैं.
अगले बरस के फ़रमान शायद छात्र-छात्राओं के अलग कक्षा में अध्ययन-अध्यापन के हों, फिर शायद, अगला बरस छात्र-छात्राओं के आपस में बात-चीत पर दंड का प्रावधान लेकर आए और उसके अगले बरस विश्वविद्यालय में छात्राओं के प्रवेश पर.... निषेध! तब शायद हमें आश्‍चर्य और अफ़सोस करने तक का मौक़ा न मिले। क्या तीन वर्ष बाद आप इस विश्‍वविद्यालय को ऐसा ही देखना चाहेंगे?
हम उन छात्र-छात्राओं और विश्वविद्यालय के उन सभी सदस्यों, जो इस असमानता को कम करने की ख़्वाहिश रखते हैं, की तरफ़ से इस फ़तवे की तीखी निंदा करते हैं.
विश्वविद्यालय के आलाअधिकारियों, जेंडर असमानता को कम करने की मुहिम में लगे प्रगतिशील अध्यापक-अध्यापिका एवं छात्र-छात्राएं नये वर्ष की बधाई के साथ इस मध्य-युगीन मूल्यों के फ़तवे की चुनौती को स्वीकार करें।

दख़ल की दुनिया ब्लॉग
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मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

वि.वि. का आज १२ वाँ स्थापना दिवस

वि।वि। का आज १२ वाँ स्थापना दिवस है। जिसमे एक तरफ प्रशासन भव्य पंडाल लगाकर आड्म्बर पूर्ण आयोजन करवा रहा है वहीं २१ दिन से आंदोलन रत छात्र इस दिवस को शोक के रूप में मनाते हुए अपना मुंडन करा रहे हैं इतने दिनों से छात्रों द्वारा की जा रही जायज मांगों को प्रशासन इसलिये नहीं मांग रहा है कि उसकी प्रतिष्ठा दांव पर है ख्यात ब्रहम्हणवादी प्रो. आत्म प्रकाश श्रीवास्तव को बचाने के लिये विभूतिनरायण राय जैसे प्रगतिशीलता पसंद कुलपति न जाने क्यों जुटे हुए हैं.
दिवस के शोक की कुछ तस्वीरें-















हिंदी के नाम पर ये कैसा समाज बना रहे हैं?

अनिल

वर्धा के महात्मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में एक ओर आज जहां ’स्थापना दिवस’ मनाया जा रहा है वहीं दूसरी ओर दलित विद्यार्थी पढ़ाई लिखाई पर अपने अधिकार को हासिल करने के लिए अनशन पर बैठे हैं। इन विद्यार्थियों ने इस दिन को ’शोक दिवस’ के रूप में मनाने का आह्वान किया है। पिछले नौ दिसंबर को दीक्षांत समारोह के बहिष्कार से लेकर आज यह दूसरा बड़ा आयोजन होगा, विद्यार्थियों द्वारा जिसके सामूहिक बहिष्कार की घोषणा की जा रही है। यहां इस पूरे आयोजन और इस ’स्थापना दिवस’ की ऐतिहासिकता पर एक नज़र डालना तर्कसंगत होगा।
आज से ठीक तीन साल पहले, 29 दिसंबर 2006 को तत्कालीन कुलपति जी गोपीनाथन के कार्यकाल में अकादमिक धांधलियों के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन में लगभग चालीस छात्र-छात्राओं को जेल भेज दिया गया था। तत्कालीन प्रशासन की निरंकुशता और बेशर्मी का एक नमूना यह था कि स्थापना दिवस के उस आयोजन में मिठाइयां बांटते हुए आदोलनरत विद्यार्थियों के बारे में मंच से एक भद्दी टिप्पणी की गई थी जिसका आशय कुछ इस तरह था कि कुछ ’सनकी’ क़िस्म के लोग यह ’समारोह’ जेल में मना रहे होंगे।
आज शाम, मंच से ऐसी बातें नहीं होंगी। हो भी नहीं सकतीं। लेकिन विश्‍वविद्यालय के वातावरण में आज भी अन्याय और भेदभाव को व्यापक स्तर पर प्रोत्साहित करने वाली स्थितियां मौजूद हैं। समाज में सत्ताधारी सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने वाली सभी ताक़तें एक भिन्न रूप और भिन्न तरीक़ों से सत्ता के पायदान पर आसीन हो गई हैं। उनमें से मात्र कुछेक ज़रूरी मसलों पर वर्तमान दलित छात्र-छात्राएं आंदोलनरत हैं, लेकिन वर्तमान प्रशासन नीतिगत स्तर पर इन सारे मुद्दों को ’नाजायज़’ और व्यक्‍तिगत स्तर पर अपनी ’प्रतिष्‍ठा’ का मुद्दा मान रहा है। उसने इन्हें नज़रअंदाज़ करने और इन मुद्दों को ’पचाने’ के नए और अपेक्षाकृत बेहतर तकनीकी ईजाद कर ली है। अब ’उपलब्धियों’ का बखान करने वाले अतिरंजित जनसंपर्क द्वारा लोगों को सरलता से मूर्ख बनाया जा सकता है। सांस्थानिक जनसंपर्क द्वारा सतही प्रचार करने के इस उपक्रम से वास्तविक मुद्दों को चट कर जाने में आसानी हो जाती है। स्थानीय स्तर पर पत्रकारिता के तिकड़मों के कारण ऐसे हवाई दावों को चुनौती मिलनी भी मुश्किल हो रही है। साथ ही स्थानीय जनमानस के बीच ऐसी छवि गढ़ने की कोशिश की जाती है जैसे कि विश्‍वविद्यालय कोई ’असामान्य’ तथा हर तरह के सवालों से परे रहने वाला संस्थान हो। अब सक्रिय तथा गतिशील हिंदी समाज तो यहां की स्थितियों पर कोई रोज़मर्रा की निगरानी रख नहीं रहा है कि उसे इन सेकंड हैंड तथा आत्ममुग्ध विवरणों को आलोचनात्मक ढंग से परखने का मौक़ा मिले।
वर्तमान कुलपति विभूति नारायण राय को विश्‍वविद्यालय में आए तेरह-चौदह महीने हो चुके हैं। उनके इस एक साल के कार्यकाल और कामों के बारे में अब कुछेक वस्तुपरक टिप्पणियां कदाचित की जा सकती हैं। दिलचस्प है कि इस दौरान विश्‍वविद्यालय के प्रति अवधारणा और विज़न के बारे में उनकी भाषा और शब्दावली में आश्‍चर्यजन ढंग से, ग़ौरतलब परिवर्तन आया है। कुलपति के रूप में अपने पहले वर्धा आगमन से लेकर अब तक उन्होंने हिंदी समाज और उसकी विसंगतियों, विश्‍वविद्यालय से समाज की अपेक्षाएं, प्रशासन के कामकाज आदि के बारे में कई बार बयान दिए हैं जो काफ़ी उलझाने वाले अंदाज़ (पोलेमिक स्टाइल) के जीते जागते नमूने हैं। यहां एक उदाहरण देना उचित होगा जिससे उनके अकादमिक विज़न के बारे में कुछ ठोस राय बनाई जा सकती है। इस स्थापना दिवस की पूर्वसंध्या पर उन्होंने कहा, “हिंदी को मात्र साहित्य या चिंतन की भाषा नहीं बनानी है, इसे वैश्‍विक स्तर पर एक भाषिक राजदूत की भूमिका निभानी है।” ज़ाहिर है, ऐसा उन्होंने हिंदी विश्‍वविद्यालय की भूमिका के संदर्भ में कहा है। साल भर पहले, कुलपति का कार्यभार ग्रहण करते वक़्त उन्होंने कबीर को याद करते हुए कहा था कि हिंदी विश्‍वविद्यालय को हिंदी समाज में नवजागरण के अग्रदूत की भूमिका निभानी होगी। यहां हिंदी भाषी समाज में हिंदी के प्रगतिशील चिंतन पक्ष के प्रति एक ज़ोर था। लेकिन साल भर में शब्दावली ख़ामोश तरीक़े से बदल गई। और अब कई पदासीन लोगों को ऐसे प्रसंगों को याद करना बाल में खाल निकालने जैसा लगने लगता है।
यह एक सुपरिचित तथ्य है कि देश के भीतर हिंदी के प्रचारात्मक ’राजदूत’ की भूमिका के लिए कई हिंदी प्रचार समितियां सालों से चल रही हैं। इनके ज़िम्मे प्राथमिक काम हिंदी समाज के हिंदी के कर्मकांडी सांस्कृतिक वर्चस्व को स्थापित करते हुए उन्हें वैध ठहराने से लेकर, सड़े गले परंपरावादी विचारों के पुनरोत्पादन तक का है। एक पतित नौकरशाही मशीनरी ने इनका धंधा और आसान कर दिया है। अब हिंदी विश्‍वविद्यालय भी इस पटाखा तैयारी में व्यस्त है कि वह इसी लीक का अनुसरण करते हुए, विश्‍वविद्यालय की बौद्धिक सरगर्मीयुक्‍त ज़िम्मेदारी से अपने आप को घटाकर (रिड्यूज़ कर) अंतर्राष्‍ट्रीय स्तर पर ऐसे ही प्रचारात्मक ’राजदूत’ की भूमिका का निर्वहन करेगा। यहां यह याद करना प्रासंगिक होगा कि भूतपूर्व दो कुलपतियों का कार्यकाल ऐसी ही समझदारियों से संचालित कार्यपद्धतियों की असफलता का दौर रहा है। इन्हीं विचारों की उपज में उस अकादमिक भ्रष्‍टाचार के उत्स हैं जिसने स्थितियों को और दयनीय बना दिया।
पिछले एक साल में, भवन आदि के निर्माण में अपेक्षाकृत तेज़ी आई है। ढांचागत निर्माण के जो काम पिछले कई सालों से प्रशासनिक इच्छा की कमी के कारण स्थगित पड़े रहे उनकी शुरुआत हो गई है। लेकिन अकादमिक तौर पर कोई भेदभावरहित व्यवस्था अब तक नहीं बन पाई है। न ही अकादमिक गुणवत्ता को बनाने का कोई पैमाना और आदर्श निर्मित किया गया है। इस बीच, कई बड़े, महत्त्वाकांक्षी जनसंपर्क समारोह आयोजित किए गए। इनमें हिंदी समाज के कई लेखक, कवि तथा आलोचकों ने अभिनंदनयुक्‍त भागीदारी की। आंशिक तौर पर लोगों की प्रदर्शनयुक्‍त भागीदारी सुनिश्‍चित हुई जिसके माध्यम से हिंदी के दूर-दूर तक पसरे साहित्यिक समाज को लुभावना संदेश दे दिया गया कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। और, भेदभाव के पुराने ढांचे क़ायम रहे। बस, औज़ार बदल गए। भाषा बदल गई, उसके स्वरूप में आंशिक हेरफेर किया गए लेकिन वर्चस्व के प्रतिमान नहीं बदले। अनुष्‍ठानिक गुणगान जारी रहे बस, उसकी पद्धतियां बदल गईं।
सत्ता के नीचे के पायदानों पर ऐसे कई लोग हैं जिनका व्यवहार प्रमाणिक रूप से जातिवादी हैं। जो अपने अधिष्‍ठाता, विभागाध्यक्ष या पदाधिकारी होने के रसूख का इस्तेमाल अपने भ्रष्‍ट आचरण को मूंदने-ढांपने के लिए करते हैं। साफ़ साफ़ असहमति व्यक्‍त करने वाले छात्र-छात्राओं, शिक्षकों और ग़ैर-शैक्षणिक कर्मचारियों को मानसिक तौर पर उत्पीड़ित करते हैं। अब बात बात पर भयाक्रांत करने वाली नौकरशाही घुड़कियों का एक ऐसा मज़बूत घेरा निर्मित हुआ है कि अधिकतर लोग चुपचाप प्रशासन से सुविधाजनक नज़दीकी बनाए रखने में ही अपनी भलाई समझने लगे हैं। आम छात्र-छात्राओं के बीच यह यह बात सौ फ़ीसदी प्रमाणित हो गई है कि विश्‍वविद्यालय में उन्हीं विद्यार्थियों को तरक़्क़ी या ’नियुक्‍ति’ मिलती है जो हां में हां मिलाते हुए ’फ़ील गुड’ मुद्रा में रहते हैं। अकादमिक कौंसिल में छात्र-छात्रा प्रतिनिधियों के नाम पर हुई हालिया नियुक्‍ति इसका सर्वाधिक ज्वलंत उदाहरण है जहां मनमाने ढंग से यह नियुक्‍तियां संपन्न कर ली गईं। सौ से अधिक छात्र छात्राओं के विरोध पत्र के बावजूद अब तक कोई उचित कारवाई नहीं की गई है। अंततः आंदोलन का रास्ता अख़्तियार करने वाले छात्र राहुल कांबले को अब तक न्याय नहीं मिल पाया है। आज नागपुर तथा वर्धा के स्थानीय मीडिया में जो ख़बरें छपी हैं उनमें लफ़्फ़ाज़ियों तथा स्तुतिगान का एक नपा तुला मिश्रण मौजूद है।
यह एक दारूण दृश्‍य है कि आज जनसंपर्क के मुखौटे और पाखंड के घटाघोप के बीच अपनी न्यायपूर्ण मांगों के लिए विश्‍वविद्यालय में छात्र-छात्राओं का एक बड़ा समूह ’स्थापना दिवस’ को एक ’शोक दिवस’ के रूप में मना रहा है। तीन सौ नियमित विद्यार्थियों वाले हिंदी विश्‍वविद्यालय में कुछ छात्र पिछले बीस पच्चीस दिनों से भूखे बैठे हैं और ऐसे अनुष्‍ठान पूरे घमंड के साथ जारी हैं। ऐसे में तीन साल पुराने स्थापना दिवस समारोह की यादें ताज़ी हो जाना स्वाभाविक है, जब उस समय की संख्या के लिहाज़ से एक तिहाई छात्र-छात्राएं जेल में हों और अपनी क्रूरता को सामान्य बनाने (नॉर्मलाइज़ करने) के लिए विश्‍वविद्यालय प्रशासन मिठाइयां बांट रहा था।
क्या अब हिंदी के सक्रिय और चिंतित बुद्धिजीवियों को यह सवाल नहीं करना चाहिए कि हिंदी के नाम पर आख़िर यह कैसा समाज रचने की बुनियाद निर्मित की जा रही है?

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि प्रशासन के ख़‍िलाफ़ दलित चार्जशीट

देश भर में धर्मनिरपेक्ष प्रशासक की छवि निर्मित करने वाले पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कुलपति बनने के बाद दलितों का उत्पीड़न तेजी के साथ बढ़ा है। सवाल उठता है कि क्या कोई धर्मनिरपेक्षवादी जातिवादी नहीं हो सकता है? वर्धा विश्‍वविद्यालय में विभूति बाबू के आने के बाद दलित उत्पीड़न की घटनाएं एक नयी बहस खड़ी करती है। पेश है, सभी मामलों का सिलसिलेवार ब्‍यौरा…
मामला नंबर एक )) विश्वविद्यालय के अनुवाद विद्यापीठ में राहुल कांबले ने एमफिल की परीक्षा में टॉप (स्वर्ण पदक) किया लेकिन पीएचडी में उसका नामांकन नहीं किया गया। अनुवाद विद्यापीठ में दो विद्यार्थियों का ही नामांकन करने का फैसला विश्वविद्यालय ने किया। पीएचडी के लिए चयनित विद्यार्थियों में राहुल कांबले को तीसरे नंबर पर दिखाया गया। लेकिन जब चयनित दो विद्यार्थियों में से एक विद्यार्थी ने अनुवाद विद्यापीठ में पीएचडी में नामांकन नहीं लिया, तो राहुल ने अपना दावा पेश किया। लेकिन लगातार तीन महीने तक उसे प्रताड़ित किया गया। उसने नामांकन की पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए सूचना के अधिकार के तहत विश्वविद्यालय प्रशासन से जानकारी मांगी थी। अनुवाद विद्यापीठ के डीन प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव ने सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल करने की आड़ लेकर राहुल का नामांकन लेने से मना कर दिया। राहुल कुलपति विभूति नारायण राय के समक्ष अपनी फरियाद लेकर गया। लेकिन कुलपति ने बजाय उसके साथ न्याय करने के प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव से माफी मांगने का निर्देश दिया। राहुल ने प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव से चार बार माफी मांगी। उनके पैर तक पकड़े। लेकिन कुलपति ने नामांकन की स्वीकृति नहीं दी। आखिरकार राहुल ने आंदोलन करने की चेतावनी दी। आंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम ने राहुल के मामले को उठाया। 8 दिसंबर को विश्वविद्यालय ने दीक्षांत समारोह का आयोजन किया था। दलित छात्रों ने उसका बहिष्कार किया। दलित छात्रों का बड़ा हिस्सा दीक्षांत समारोह में दिये जाने वाले पदकों को लेने नहीं गया। उसी दिन राहुल कांबले आमरण अनशन पर भी बैठ गया। उसके बाद उसके समर्थन में कई दलित छात्र क्रमवार अनशन पर बैठने लगे। जबकि दीक्षांत समारोह में शामिल होने के लिए आये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष डा सुखदेव थोराट ने अनशन कर रहे विद्यार्थियों के पास जाकर उनके प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की। लेकिन डा थोराट के कहने के बावजूद विश्वविद्यालय प्रशासन राहुल का नामांकन लेने को तैयार नहीं हुआ। विद्यार्थियों ने कुलाधिपति नामवर सिंह से भी मुलाकात की। उन्होंने कहा कि दलितों का जितना नामांकन गांधी के विश्वविद्यालय में होता है, उतना आंबेडकर विश्वविद्यालयों में भी नहीं होता होगा। डा नामवर सिंह से विद्यार्थियों ने अनशन स्थल पर आने का अनुरोध किया लेकिन दो दिनों तक अनशन स्थल से सौ कदम की दूरी पर रहने के बावजूद वे अनशनकारी विद्यार्थियों से मिलने नहीं गये। कुलपति लगातार कई दिनों तक अनशन स्थल के बगल से ही सुबह टहलने के लिए निकलते रहे, लेकिन उन्होंने विद्यार्थियों से मिलने व बातचीत करने की ज़रूरत नहीं महसूस की। उन्होंने कहा कि विद्यार्थी छह माह और छह वर्ष तक भी आंदोलन करेंगे तो उनका नामांकन नहीं हो सकता है। प्रति कुलपति मानवशास्त्री डा नदीम हसनैन को यह दुख हुआ कि विद्यार्थियों के अनशन की वजह से उन्हें सुबह टहलने का अपना रास्ता बदलना पड़ा। ट्रेड यूनियन आंदोलन की पृष्‍ठभूमि वाले विशेष कर्तव्य अधिकारी राकेश (श्रीवास्तव) ने कहा कि वर्धा जले या महाराष्ट्र या हिंदुस्तान, राहुल का नामांकन नहीं किया जाएगा। दलित विद्यार्थी लगातार संघर्ष करते रहे।
मामला नंबर दो )) पिछले सत्र में विभूति नारायण राय के कार्यभार संभालने के बाद विश्वविद्यालय में जेआरएफ पाने वाले पहले छात्र संतोष बघेल को तुलनात्मक साहित्य में पीएचडी में नामांकन देने से मना कर दिया गया। संतोष विश्वविद्यालय में पदक प्राप्त मेधावी छात्र रहा है। नामांकन नहीं किये जाने की स्थिति में संतोष बघेल को आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा। दलित विद्यार्थियों ने जिला प्रशासन के सामने जाकर अनशन किया। लेकिन अनशन के दौरान विश्वविद्यालय प्रशासन का एक भी प्रतिनिधि उनसे मिलने नहीं गया। तब विश्वविद्यालय परिसर में संगठन बनाना और आंदोलन करना भी संभव नहीं था। पुलिस कुलपति का एक भय पूरे वातावरण में व्याप्त रहता था। बाद में उन विद्यार्थियों ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग समेत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के समक्ष गुहार लगायी और बताया कि पिछले तीन वर्षों से आरक्षण नियमों का पालन नहीं किया जा रहा है।
मामला नंबर तीन )) साहित्य में पहले पीएचडी में यदि दलित छात्रों के नामांकन हुए तो उन्हें किसी दलित शिक्षक के तहत ही शोध कराने की अघोषित व्यवस्था हनुमान प्रसाद शुक्ला के समय में रही है।
मामला नंबर चार )) 2009 में जनसंचार विभाग में पीएचडी में प्रवेश परीक्षा हुई और उसके बाद इंटरव्यू किये गये। जिस पैनल ने ये प्रक्रिया पूरी की, उसमें संस्कृति विद्यापीठ के डीन, विभागाध्यक्ष, प्रोफेसर, एक रीडर, एक विशेषज्ञ और अनुसूचित जाति एवं जनजाति की बतौर प्रतिनिधि एक रीडर थी। उस समय दस विद्यार्थियों को पीएचडी में लेना था। जब परीक्षा परिणाम आया तो उसमें पिछड़े, दलित विद्यार्थियों की तादाद ज़्यादा थी। वे आरक्षण की सीट से ज़्यादा सामान्य वर्ग के रूप में भी सफल घोषित किये गये। तब दस सीटों के लिए नामांकन करने की घोषणा की गयी थी। लेकिन वो परीक्षा परिणाम रद्द कर दिया गया। दोबारा परीक्षा आयोजित की गयी। दोबारा परीक्षा की प्रक्रिया किस तरह से पूरी की गयी, गौरतलब है। विश्वविद्यालय से बाहर के एक शिक्षक ने ही प्रश्‍नपत्र तैयार किया। परीक्षा की कॉपी जांची और वहीं इंटरव्यू में बैठा। इस बार अनुसूचित जाति एवं जनजाति का प्रतिनिधि पैनल में नहीं था। परीक्षा परिणाम तीन दिनों की प्रक्रिया में ही निकाल दिया गया। इस परीक्षा परिणाम में ज़्यादा सवर्ण विद्यार्थियों को चयनित किया गया। मज़े की बात कि इस पैनल में विभाग के एक भी शिक्षक को नहीं रखा गया। सीटों की संख्या भी दस से तेरह कर दी गयी।
मामला नंबर पांच )) दिसंबर 6, 2009 को आंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम ने महापरिनिर्वाण दिवस के अवसर पर मोमबत्ती यात्रा का कार्यक्रम आयोजित किया। यात्रा विश्वविद्यालय परिसर से होकर वर्धा स्थित आंबेडकर प्रतिमा तक गयी। इसमें दलित विद्यार्थियों के अलावा अन्य विद्यार्थी शामिल हुए। लेकिन पहली बात तो ये हुई कि इस यात्रा में विश्वविद्यालय के एक मात्र दलित प्रोफेसर लेल्ला कारुण्यकारा भी शामिल हुए तो उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। आरोप लगाया गया कि उन्होंने जातीय नारे लगाये। नारे थे – ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद, मनुवाद मुर्दाबाद, जातिवाद मुर्दाबाद आदि। प्रोफेसर कारुण्यकारा को दिये गये नोटिस में कहा गया कि उन्होंने परिसर का वातावरण दूषित किया। उन्हें सात दिनों के भीतर जवाब देने के लिए कहा गया। ये भी चेतावनी दी गयी कि यदि सात दिनों के भीतर जवाब नहीं दिया गया तो एकतरफा कार्रवाई कर ली जाएगी। ये नोटिस खुद विभूति नारायण राय ने जारी किया। दूसरी बात कि उसी दिन विश्वविद्यालय ने भारत-ईरान कलाओं के लोक आख्यान पर कार्यक्रम आयोजित किया। वह रविवार का दिन था। तीसरी बात कि शाम को लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट पर चर्चा के लिए विश्वविद्यालय के गांधी हिल्स पर एक अलग कार्यक्रम आयोजित किया गया।
मामला नंबर छह )) दिसंबर 6, 2008 को बाबासाहेब आंबेडकर दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र ने महापरिनिर्वाण दिवस मनाने का फैसला किया था। कार्यक्रम के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन से तीन हजार रुपये की मांग की गयी थी। लेकिन दो हजार रुपये ही स्वीकृत किये गये और उसी दिन पुस्तकालय में इससे अलग कविता पाठ का एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। इसका असर ये हुआ कि 6 दिसंबर 2009 को दलित जनजाति अध्ययन केंद्र ने कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया।
मामला नंबर सात )) दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र की बिल्डिंग के शिलान्यास पत्थर को गिरा दिया गया। इसका शिलान्यास विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष सुखदेव थोराट ने 22 फरवरी 2007 को किया था। इसका दोबारा शिलान्यास कराने की योजना बनी और राज्यपाल आरएस गवई को 2 दिसंबर 2009 को आमंत्रित किया गया। लेकिन वो नहीं आये। आज भी वो शिलान्यास पत्थर कूड़े के ढेर के समान पड़ा हुआ है।
मामला नंबर आठ )) डा आंबेडकर दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र के भवन के निर्माण के लिए एक करोड़ रुपये मिले थे। लेकिन उसका इस्तेमाल दूसरी बिल्डिंग बनाने में कर दिया गया।
मामला नंबर नौ )) कुलपति विभूति नारायण राय ने कार्यभार संभालने के बाद तीन शिक्षकों को चार कारण बताओ नोटिस जारी किया और वे सभी शिक्षक दलित एवं आदिवासी हैं।
मामला नंबर दस )) कुलपति विभूति नारायण राय ने अपने कार्यकाल में एक वर्ष के अंदर पचास से ज़्यादा अस्थायी बहालियां की, उनमें एक भी दलित एवं आदिवासी नहीं है।
मामला नंबर ग्‍यारह )) दलित छात्र-छात्राओं के खिलाफ जातिगत पूर्वाग्रहों को कई बार घटनाओं के रूप में सामने रखना संभव नहीं हो पाता है। ऐसी न जाने कितनी बातें हैं, जो केवल दलित महसूस करता है कि उसके साथ जातिगत भेदभाव किया जा रहा है।
मामला नंबर बारह )) दलित विद्यार्थियों का आठ महीने तक राजीव गांधी फेलोशिप रोके रखा गया।
मामला नंबर तेरह )) कुलपति ने विश्वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के दलित नेताओं को लंपट कहा।
मामला नंबर चौदह )) कुलपति ये कहते हैं कि दलित इस विश्वविद्यालय में केवल फैलोशिप के लिए आते हैं।
मामला नंबर पंद्रह )) सहायक रजिस्ट्रार (वित्त) सुशील पखिडे वित्त के एकमात्र स्थायी अधिकारी हैं, लेकिन उन्हें वित्त से हटा दिया गया और डिस्‍टेंस (दूरस्थ शिक्षा विभाग) में भेज दिया गया।
मामला नंबर सोलह )) आयुष छात्रावास के छात्र के रूप में अमरेंद्र शर्मा के खिलाफ एससी-एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज है। उन्हें आयुष छात्रावास का ही वार्डेन बना दिया गया। जब विद्यार्थियों ने विरोध किया तो दूसरे छात्रावास का वार्डेन बना दिया गया।
मामला नंबर सत्रह )) विश्वविद्यालय में किसी विद्यार्थी को फेल नहीं किया गया है, लेकिन दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र के तीन विद्यार्थियों को फेल कर दिया गया।
एक तरफ तो दलितों के उत्पीड़न की ऐसी शिकायतें हैं, तो दूसरी तरफ जातिवाद के कुछ और नमूने भी देखे जा सकते हैं।
नमूना नंबर एक »» विश्वविद्यालय के शांति एवं अहिंसा विभाग के अस्सिटेंट प्रोफेसर मनोज राय को दिल्ली सेंटर का प्रभारी बनाया गया। नियमत: ये गलत है। इन महोदय को वेतन वर्धा में विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए दिया जाता है, लेकिन ये महोदय कक्षा नहीं लेते हैं, बल्कि उन्हें दिल्ली में मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की डीलिंग के काम में लगाया गया है। तीसरी बात कि कुलपति स्‍वयं को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, लेकिन मनोज राय घोषित तौर पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़े रहे हैं। मनोज राय ने सूचना के अधिकार के तहत बतौर सूचना अधिकारी सूचना लेने की फीस दस रुपये से बढ़ा कर नियमों के विपरीत पचास रुपये कर दिया था। चूंकि वे स्वजातीय हैं, इसीलिए उनके लिए सब क्षम्य है और वे ईनाम पाने के हर तरह से हकदार हैं।
नमूना नंबर दो »» विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग का प्रमुख डा अनिल कुमार राय अंकित को बनाया गया है। वे दक्षिणपंथी विचारों के हैं। उनके नाम से छपी दर्जनों किताबों के बारे में पूरे देश में ये छपा है और चैनलों में दिखाया गया है कि उन्होंने अपनी किताबें दूसरे लेखकों की किताबों से सामग्री लेकर छापी है। उन्हें चोर गुरु के रूप में सभी जानते हैं। कुलपति को भी ये सब पता है। उनके यहां बाकायदा शिक़ायत दर्ज करायी गयी है। ये सब तथ्य डा अंकित की नियुक्ति के समय भी उनके सामने मौजूद थे। लेकिन ये उनके स्वजातीय हैं, इसीलिए उनके ख़‍िलाफ़ कोई कार्रवाई करने के बजाय दीक्षांत समारोह के लिए उन्हें हजारों का बजट देकर मीडिया प्रभारी बना दिया गया।
जातिवादी कौन है?
आप इसे दुनिया को बताएं। धर्मनिरपेक्षतावादी की छवि बनाकर जातिवाद को कैसे सुरक्षित रखा जाता है।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

मसला-ए-"चोर गुरू"

साथियों,
पिछले दिनों सी.एन.इ.बी. न्यूज चैनल पर अपने विश्ववविद्यालय के मीडिया विभाग के प्रमुख अनिल राय अंकित पर एक कार्यक्रम "चोर गुरू" दिखाया गया जिसमे कहा गया कि उन्होंने चोरी करके एक साल में बारह पुस्तकें लिखी हैं. बाद में उपलब्ध होने पर यह कार्यक्रम हम छात्र-छात्राओं द्वारा भी देखा गया क्योंकि यह हमारे विभाग का मामला था और हमारे भविष्य को प्रभावित करने वाला भी लिहाज़ा हमने इसे देखा भी और आपस में इस विषय पर बात-चीत भी की पर हमारे कुछ छात्र मित्रों द्वारा हमारा इस फिल्म को देखना विश्वविद्यालय विरोधी लगा और उन्होंने सुनियोजित ढंग से एक विद्यार्थी के खिलाफ़ प्रशासन को पत्र लिखा या उनसे लिखवाया गया जिसे हम यहाँ सार्वजनिक कर रहे हैं.
अगर आप उस कार्यक्रम को देखना चाहते हैं तो
mgahvreporter@gmail.com पर सम्पर्क करके प्राप्त कर सकते हैं ताकि इस पर सार्वजनिक बहस की जा सके कि विश्वविद्यालय में व्याप्त गड़बडियों पर बात-चीत करना कितना विश्वविद्यालय विरोधी है?









बुधवार, 16 दिसंबर 2009

छलित छात्रों का अनशन आठवे दिन भी जारी

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में दलित छात्र राहुल काम्बले को पीएच.डी. में प्रवेश न दिए जाने और विभागाध्यक्ष द्धारा उत्पीड़ित किए जाने को लेकर अम्बेडकर स्टुडेंट्स फोरम द्वारा आज आठवे दिन भी अनशन जारी रहा। आमरण अनशन पर बैठे दो छात्र चार दिनों से गंभीर अवस्था में अस्पताल में भर्ती है। विश्वविद्यालय को ऐसी स्थिति छोड़कर कुलपति बाहर चले गए है।इस बीच फोरम ने आम छात्रों की एक सभा बुलाकर स्टुडेंट्स को-आॅर्डिनेशन कमेटी का गठन किया। इस सभा में उपस्थित छात्रों ने प्रशासन के रवैये के खिलाफ एक निंदा प्रस्ताव पारित किया और फोरम की मांगों को समर्थन जताया। इस कमिटी ने प्रति कुलपति से कई बार बातचीत कर न्यायपूर्ण हल की मांग की और राहुल काम्बले को प्रवेश के संदर्भ तथ्य और तर्क रखे। यद्यपि प्रति कुलपति के पास इन तर्को का कोई ठोस जवाब नही था। परंतु वे राहुल का प्रवेश लेने के लिए राजी नहीं हुए और बार-बार एक कमेटी बनाकर जांच करवाने को लेकर अड़िग रहे। प्रति कुलपति का कहना था कि अनशन को समाप्त करने के बाद ही यह कमेटी बनाई जाएगी। जबकि राहूल के ही मसले पर बनी पूर्व की ही एक कमेटी द्वारा दी गई संस्तुति को अब तक न तो लागू किया गया और न ही सार्वजनिक। इस बीच प्रशासन ने इस मामले को तब और उलझा दिया जब विवि के ही एक दलित लेक्चरर शैलेश कदम मरजी को राहुल के स्थान पर प्रवेश दिया तथा राहुल के प्रोफेसर पिता को वर्धा बुलाकर बरगलाने की कोशिश की। जिससे छात्रों में और असंतोष भड़क गया। आमरण अनशन पर बैठे दो छात्र राहुल काम्बले और ओमप्रकाश बैरागी का अस्पताल में इलाज चल रहा है। विवि के केंद्रिय पुस्तकालय के सामने चल रहे अनशन के आज आठवे दिन संतोष कुमार बघेल श्रृखंला अनशन पर बैठे थे।

दलित कांबले अस्‍पताल में, सवर्ण छात्राएं विवि में दाखिल


जब रोम जल रहा है, नीरो मिट्टी का तेल डाल रहा है। जहाँ धुंआ उठ रहा है वहाँ हवा कर रहा है। बची हुई नमी को सूखा कर रहा है और जलाने पर पूरा-पूरा आमादा है। इतिहास की घटना का मुहावरा पंचटीला की पहाड़ियों पर उतर रहा है। गांधी के नाम पर बने विश्वविद्यालय में गांधी का रास्ता चुक रहा है, दम तोड़ रहा है।
कुछ ऐसी ही स्थिति है महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा की जहाँ पिछले आठ दिनों से कुछ छात्र आमरण अनशन पर हैं। जिसमे दो छात्र राहुल काम्बले, ओम प्रकाश वैरागी अस्पताल में भर्ती कराये जा चुके हैं। इन अंदोलनकारी छात्रों की हालत गम्भीर है। इस बीच लाखों रूपये खर्च करके किया जाने वाला आडम्बरपूर्ण कार्यक्रम दीक्षांत समारोह खत्म हो चुका है और कुलपति विभूति नारायण राय इस स्थिति को ऐसा ही छोड़ विश्वविद्यालय से बाहर चले गये हैं।
अनुवाद विद्यापीठ के प्रमुख प्रो। आत्मप्रकाश श्रीवास्तव द्वारा दलित छात्र राहुल काम्बले के उत्पीड़न व विभाग में प्रवेश न दिये जाने की वजह से शुरू हुए इस अनशन को वि.वि. प्रशासन स्थानीय अखबारों में झूठा आरोप बता कर ख़ारिज कर रहा है। जबकि वि.वि. में आत्म प्रकाश का जातिवादी रवैया पिछली कई घटनाओं के आधार पर उजागर हो चुका है। प्रशासन के उच्च अधिकारी इस मसले को सुलझाने के पक्ष में भी नहीं हैं क्योंकि वे इसे अपने प्रतिष्ठा का मसला मान रहे हैं। जबकि दूसरी तरफ एक दलित छात्र का उत्पीड़न उन्हें स्वाभाविक सा प्रतीत हो रहा है। शायद इनकी नज़र में दलितों की कोई प्रतिष्ठा नहीं होत। उच्च अधिकारियों में ज्यादातर लोग अपनेआप को प्रगतिशील कहलाना पसंद करते हैं और देश दुनिया में उन्हें इसी लिहाज़ से जाना भी जाता है, चाहे वह प्रतिकुलपति नदीम हसनैन हों या फिर कुलपति विभूतिनारायण राय। लेकिन क्या यह एक तरह का सवर्णवाद नहीं है जहाँ 3 माह से उत्पीड़ित होता कोई छात्र आमरण अनशन पर बैठे और आमरण अनशन के स्थगन के बिना उच्चाधिकारी किसी कार्यवाही पर राजी न हों। यह मसला वि.वि. के सवर्णवादी रुख को ही इंगित करता है जिसकी उम्मीद यहाँ के विद्यार्थी, शिक्षक और देश के दूसरे हिस्से के शुभचिंतक लोग बतौर कुलपति विभूति नारायण राय से नहीं करते। वि.वि. के ही भाषा प्रौद्योगिकी नामक विभाग में दो ऐसी छात्राओं का प्रवेश लिया जाता है जो साक्षात्कार में सम्मिलित नहीं थीं। उनका नाम गुंजन शर्मा और अर्चना शर्मा है। यह प्रवेश किस आधार पर किया जाता है? बकौल प्रतिकुलपति, “यह प्रवेश विभाग प्रमुख की नीयत के आधार पर हुआ है, उन्होंने चाहा और प्रवेश ले लिया गया।” इस चाहने के पीछे का क्या कारण था? क्या यह नहीं कि ये दोनों छात्रायें सवर्ण थी और विभाग प्रमुख महेन्द्र पाण्डेय भी सवर्ण। और……….नीयत बन गयी। दरअसल, प्रतिकुलपति द्वारा कहे इसी वाक्य को राहुल काम्बले भी कह रहे हैं कि नीयत की व्याख्या करके देखा जाय कि उसके विभागाध्यक्ष आत्मप्रकाश की नीयत उसके लिये क्यों ख़राब है पर प्रशासन इस पर राजी नहीं है। तो इस बात को क्यों न माना जाय कि दलित छात्रों के लिये प्रशासन की नीयत भी खराब है। आखिर किसी प्रशासन या व्यक्ति की निष्पक्षता और प्रगतिशीलता को मापने के क्या पैमाने होंगे। प्रगतिशीलता की मुहर या उसके व्यवहार?


रविवार, 13 दिसंबर 2009

प्रतिकुलपति से हुई वार्ता का संक्षिप्त ब्यौरा

दिनांक: 13 दिसंबर, शाम आठ बजे
साथियों!
दिनांक 12 दिसंबर को हुई छात्र छात्राओं की आम बैठक के बाद निर्वाचित स्टूडेंट्स को-ऑर्डिनेशन कमेटी की ओर से इस पर्चे के माध्यम से छात्र राहुल कांबले के आंदोलन पर यह पहला सार्वजनिक संबोधन है। इस मसले पर समिति के साथ प्रशासन के प्रमुख प्रतिनिधि के रूप में प्रतिकुलपति से हुई बातचीत का संक्षेप में ब्यौरा हम देना चाहेंगे। दोनों दिनों की बातचीत हालांकि सद्‍भावनापूर्ण माहौल में हुई लेकिन प्रशासन की ओर से एक यह आग्रह बार बार सामने आ रहा था कि पहले यह आमरण अनशन ख़त्म किया जाए उसके बाद एक समिति बनाकर इस मसले की संपूर्ण समीक्षा की जाएगी। हमारे प्रतिनिधियों ने इस पूरे मामले पर अनुवाद विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रो.आत्मप्रकाश श्रीवास्तव के जातिवादी रवैयों को खुलकर सामने रखा कि बिल्कुल प्रारंभ से ही प्रो.आत्म प्रकाश की नीयत ठीक नहीं थी और उन्होंने अपनी जातिवादी मानसिकता के ही कारण राहुल के पीएचडी प्रवेश को मामले को फंसाए रखा और बाद में विद्यार्थी के आंदोलनरत होने के बाद मामले को और अधिक उलझाने का पूरा प्रयास किया। यहां तक कि उन्होंने प्रशासन के अन्य ज़िम्मेदार अधिकारियों को ठीक ठीक तथ्यात्मक जानकारियां तक नहीं दी। कमेटी के प्रतिनिधियों ने विवि प्रशासन द्वारा इस न्यायपूर्ण आंदोलन के प्रति तिरस्कारपूर्ण, संवेदनहीन तथा डराने धमकाने वाले रवैये की भी आलोचना की।
पहले दिन प्रतिकुलपति ने कहा था कि हालांकि वे पदेन तौर पर राहुल के प्रवेश के मसले पर कोई नीतिगत निर्णय लेने की अवस्था में नहीं हैं इसलिए कुलपति से चर्चा के उपरांत ही वे कोई ठोस बात कहने की स्थिति में होंगे। फिर दूसरे दिन उन्होंने आमरण अनशन तोड़ने के आग्रह के साथ राहुल के प्रवेश के मसले सहित अन्य अकादमिक गड़बड़ियों को तथ्यात्मक तौर पर विस्तृत अध्ययन के लिए एक समिति बनाने का आश्‍वासन दिया। को-ऑर्डिनेशन समिति ने यह स्पष्‍ट किया कि आमरण अनशन के बारे में किसी तरह का निर्णय लेना इस समिति के दायरे में नहीं है लेकिन समिति अकादमिक माहौल को बहाल करने तथा इसे निरंतर उन्नत करने की ज़िम्मेदारी ज़रूर स्वीकारती है और इसके लिए हरसंभव योगदान देगी। इस बैठक में अकादमिक समिति में विद्यार्थी प्रतिनिधियों के "चयन" सहित अन्य अन्य अकादमिक मुद्दों पर भी चर्चा हुई। इस बारे में विस्तृत रिपोर्ट आम सभा की आगामी बैठक में प्रस्तुत की जाएगी।

प्रकाशन विभाग
स्टूडेंट्स को-ऑर्डिनेशन कमेटी
म.गां.अं.हिं.वि. वर्धा

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

छात्रों का प्रतिरोध जारी

१० दिसम्बर । छात्रो का एक समूह यूंजीसी के चेयर मैन सुखदेव थोराट से मिला और पूरे मामले से अवगत कराया। सुखदेव थोराट विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में सिरकटा कराने के लिए आए हैं। छात्रों ने काली पट्टी लगा कर भी अपना प्रतिरोध जताया। ऐसी स्थिति में जबकि छात्र विश्वविद्यालय में ब्रहामंवादी ताकतों के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठे हो विश्वविद्यालय के किसी अधिकारी के द्वारा अनसुनी की जा रही आवाज प्रशासकों की क्रूरता और प्रशासकों की अमानवीयता को दर्शाता है.

छात्रों का प्रतिरोध जारी

१० दिसम्बर. छात्रों को प्रशासन की तरफ से धमकाया जा रहा है. और पुलिस तैनात कर दी गयी. ताकि विश्वविद्यालय अपने आडंबर पूर्ण आयोजन को पूरा कर सके. इसके बरक्स ज्यादा से ज्यादा संख्या में छात्रों का समर्थन मिल रहा है. ब्रहमणवादी चरित्र के पूर्व कार्यकारी कुलपति आत्मप्रकाश श्रीवास्तव के बरखास्तगी की मांग जोरों पर है.
धरने की तस्वीरें



मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

दीक्षांत समारोह का बहिष्कार करेंगे छात्र



महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा। एक दलित छात्र के उत्पीडन और पीएचडी में उसका प्रवेश न लेने के ख़‍िलाफ़ छात्रों ने मंगलवार से आमरण अनशन शुरू कर दिया। छात्र बुधवार को आयोजित होनेवाले दीक्षांत समारोह का भी बहिष्कार करेंगे। आंदोलन का नेतृत्व कर रहे अंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम का कहना है की अनुवाद विद्यापीठ में एमफिल के टॉपर रहे राहुल कांबले का जानबूझकर पीएचडी में दाखिला नहीं लिया जा रहा। राहुल का चयन सामान्य वर्ग में प्रतीक्षा सूची नंबर एक पर हुआ। एक चयनित छात्रा द्वारा प्रवेश न लेने से एक सीट खाली है, जिस पर नियम के अनुसार राहुल का नामांकन होना चाहिए। लेकिन केवल दलित छात्र होने कारण राहुल का नामांकन सामान्य वर्ग में नहीं किया जा रहा है, जबकि उसका चयन सामान्य वर्ग में हुआ है।
छात्र राहुल कांबले का आरोप है की विद्यापीठ के डीन प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव पिछले दो महीने से उसका मानसिक और भावनात्मक शोषण कर रहे हैं। विश्वविद्यालय के कुलपति ने भी इस मामले में कभी कोई गंभीरता नहीं दिखायी और राहुल को ही बार-बार प्रो श्रीवास्तव से माफी मांगने पर मजबूर किया और अंत में उसको एडमिशन देने से मना कर दिया। प्रो श्रीवास्तव ने कई बार राहुल पर जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर कमेंट किया। यही नहीं, उसके प्रोफेसर पिता पर भी आपत्तिजनक टिप्पणियां कीं।
अंत में बार-बार ज्ञापन और अनुरोध-पत्र देने के बावजूद प्रशासन द्वारा इस मामले पर कोई रुचि न दिखाने से सबक लेते हुए विश्वविद्यालय के दलित छात्र-छात्राओं ने दीक्षांत समारोह का पूरी तरह बहिष्कार करने का निर्णय लिया हंै। इस मामले में छात्रों के हस्ताक्षरों की दो प्रतियां कुलपति को सौपी जा चुकी हैं। उसमें विश्वविद्यालय के गैर-दलित छात्रों ने भी अपना समर्थन जताते हुए हस्ताक्षर किए हैं। फोरम का स्पष्ट मानना है कि प्रो. श्रीवास्तव ने राहुल का जातिगत उत्पीड़न किया है। अतः उनके ख़‍िलाफ़ उचित कारवाई होनी चाहिए और राहुल कांबले का तत्काल पीएचडी में नामांकन होना चाहिए। फोरम ने इस पूरे मामले में विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय के उपेक्षित रवैये की भी निंदा की है। फोरम की तरफ से दलित छात्र इस मामले को लेकर मंगलवार को दोहपर बाद से अनिश्चितकालीन आमरण अनशन पर बैठ गये हैं।
छात्रों द्वारा कुलपति विभूति नारायण राय को दिया गया ज्ञापन
प्रति,कुलपति,म गां अं हिं विवि, वर्धा
विनम्र आग्रह है कि राहुल कांबले के मामले को लेकर फोरम माननीय महोदय से कई बार अनुरोध कर चुका है, लेकिन प्रशासन की तरफ से किसी भी तरह की सकारात्मक प्रतिक्रीया न आने के कारण हम आज दिनांक 08. 12. 2009, मंगलवार को विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय के निकट आमरण अनशन पर बैठने जा रहे है। हमारी दो मुख्य मांगें हैं -
1. राहुल कांबले का तत्काल पीएचडी में नामांकन दिया जाए।2. राहुल कांबले को मानसिक एवं भावनात्मक उत्पीड़न देनेवाले प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव के ख़‍िलाफ़ कारवाई की जाए।
इन दोनों मांगों के साथ हम कोई समझौता नहीं करने वाले हैं और न ही प्रशासन के दलित विरोधी रवैये के आगे झुकने वाले हैं। न्याय पाने तक हमारा संघर्ष जारी रहेगा। इसके साथ ही हम दिनांक 09 दिसंबर 2009 को आयोजित होनेवाले दीक्षांत समारोह के बहिष्कार की भी घोषणा करते है।
केंद्रीय समिति,अंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम