मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

हिंदी के नाम पर ये कैसा समाज बना रहे हैं?

अनिल

वर्धा के महात्मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में एक ओर आज जहां ’स्थापना दिवस’ मनाया जा रहा है वहीं दूसरी ओर दलित विद्यार्थी पढ़ाई लिखाई पर अपने अधिकार को हासिल करने के लिए अनशन पर बैठे हैं। इन विद्यार्थियों ने इस दिन को ’शोक दिवस’ के रूप में मनाने का आह्वान किया है। पिछले नौ दिसंबर को दीक्षांत समारोह के बहिष्कार से लेकर आज यह दूसरा बड़ा आयोजन होगा, विद्यार्थियों द्वारा जिसके सामूहिक बहिष्कार की घोषणा की जा रही है। यहां इस पूरे आयोजन और इस ’स्थापना दिवस’ की ऐतिहासिकता पर एक नज़र डालना तर्कसंगत होगा।
आज से ठीक तीन साल पहले, 29 दिसंबर 2006 को तत्कालीन कुलपति जी गोपीनाथन के कार्यकाल में अकादमिक धांधलियों के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन में लगभग चालीस छात्र-छात्राओं को जेल भेज दिया गया था। तत्कालीन प्रशासन की निरंकुशता और बेशर्मी का एक नमूना यह था कि स्थापना दिवस के उस आयोजन में मिठाइयां बांटते हुए आदोलनरत विद्यार्थियों के बारे में मंच से एक भद्दी टिप्पणी की गई थी जिसका आशय कुछ इस तरह था कि कुछ ’सनकी’ क़िस्म के लोग यह ’समारोह’ जेल में मना रहे होंगे।
आज शाम, मंच से ऐसी बातें नहीं होंगी। हो भी नहीं सकतीं। लेकिन विश्‍वविद्यालय के वातावरण में आज भी अन्याय और भेदभाव को व्यापक स्तर पर प्रोत्साहित करने वाली स्थितियां मौजूद हैं। समाज में सत्ताधारी सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने वाली सभी ताक़तें एक भिन्न रूप और भिन्न तरीक़ों से सत्ता के पायदान पर आसीन हो गई हैं। उनमें से मात्र कुछेक ज़रूरी मसलों पर वर्तमान दलित छात्र-छात्राएं आंदोलनरत हैं, लेकिन वर्तमान प्रशासन नीतिगत स्तर पर इन सारे मुद्दों को ’नाजायज़’ और व्यक्‍तिगत स्तर पर अपनी ’प्रतिष्‍ठा’ का मुद्दा मान रहा है। उसने इन्हें नज़रअंदाज़ करने और इन मुद्दों को ’पचाने’ के नए और अपेक्षाकृत बेहतर तकनीकी ईजाद कर ली है। अब ’उपलब्धियों’ का बखान करने वाले अतिरंजित जनसंपर्क द्वारा लोगों को सरलता से मूर्ख बनाया जा सकता है। सांस्थानिक जनसंपर्क द्वारा सतही प्रचार करने के इस उपक्रम से वास्तविक मुद्दों को चट कर जाने में आसानी हो जाती है। स्थानीय स्तर पर पत्रकारिता के तिकड़मों के कारण ऐसे हवाई दावों को चुनौती मिलनी भी मुश्किल हो रही है। साथ ही स्थानीय जनमानस के बीच ऐसी छवि गढ़ने की कोशिश की जाती है जैसे कि विश्‍वविद्यालय कोई ’असामान्य’ तथा हर तरह के सवालों से परे रहने वाला संस्थान हो। अब सक्रिय तथा गतिशील हिंदी समाज तो यहां की स्थितियों पर कोई रोज़मर्रा की निगरानी रख नहीं रहा है कि उसे इन सेकंड हैंड तथा आत्ममुग्ध विवरणों को आलोचनात्मक ढंग से परखने का मौक़ा मिले।
वर्तमान कुलपति विभूति नारायण राय को विश्‍वविद्यालय में आए तेरह-चौदह महीने हो चुके हैं। उनके इस एक साल के कार्यकाल और कामों के बारे में अब कुछेक वस्तुपरक टिप्पणियां कदाचित की जा सकती हैं। दिलचस्प है कि इस दौरान विश्‍वविद्यालय के प्रति अवधारणा और विज़न के बारे में उनकी भाषा और शब्दावली में आश्‍चर्यजन ढंग से, ग़ौरतलब परिवर्तन आया है। कुलपति के रूप में अपने पहले वर्धा आगमन से लेकर अब तक उन्होंने हिंदी समाज और उसकी विसंगतियों, विश्‍वविद्यालय से समाज की अपेक्षाएं, प्रशासन के कामकाज आदि के बारे में कई बार बयान दिए हैं जो काफ़ी उलझाने वाले अंदाज़ (पोलेमिक स्टाइल) के जीते जागते नमूने हैं। यहां एक उदाहरण देना उचित होगा जिससे उनके अकादमिक विज़न के बारे में कुछ ठोस राय बनाई जा सकती है। इस स्थापना दिवस की पूर्वसंध्या पर उन्होंने कहा, “हिंदी को मात्र साहित्य या चिंतन की भाषा नहीं बनानी है, इसे वैश्‍विक स्तर पर एक भाषिक राजदूत की भूमिका निभानी है।” ज़ाहिर है, ऐसा उन्होंने हिंदी विश्‍वविद्यालय की भूमिका के संदर्भ में कहा है। साल भर पहले, कुलपति का कार्यभार ग्रहण करते वक़्त उन्होंने कबीर को याद करते हुए कहा था कि हिंदी विश्‍वविद्यालय को हिंदी समाज में नवजागरण के अग्रदूत की भूमिका निभानी होगी। यहां हिंदी भाषी समाज में हिंदी के प्रगतिशील चिंतन पक्ष के प्रति एक ज़ोर था। लेकिन साल भर में शब्दावली ख़ामोश तरीक़े से बदल गई। और अब कई पदासीन लोगों को ऐसे प्रसंगों को याद करना बाल में खाल निकालने जैसा लगने लगता है।
यह एक सुपरिचित तथ्य है कि देश के भीतर हिंदी के प्रचारात्मक ’राजदूत’ की भूमिका के लिए कई हिंदी प्रचार समितियां सालों से चल रही हैं। इनके ज़िम्मे प्राथमिक काम हिंदी समाज के हिंदी के कर्मकांडी सांस्कृतिक वर्चस्व को स्थापित करते हुए उन्हें वैध ठहराने से लेकर, सड़े गले परंपरावादी विचारों के पुनरोत्पादन तक का है। एक पतित नौकरशाही मशीनरी ने इनका धंधा और आसान कर दिया है। अब हिंदी विश्‍वविद्यालय भी इस पटाखा तैयारी में व्यस्त है कि वह इसी लीक का अनुसरण करते हुए, विश्‍वविद्यालय की बौद्धिक सरगर्मीयुक्‍त ज़िम्मेदारी से अपने आप को घटाकर (रिड्यूज़ कर) अंतर्राष्‍ट्रीय स्तर पर ऐसे ही प्रचारात्मक ’राजदूत’ की भूमिका का निर्वहन करेगा। यहां यह याद करना प्रासंगिक होगा कि भूतपूर्व दो कुलपतियों का कार्यकाल ऐसी ही समझदारियों से संचालित कार्यपद्धतियों की असफलता का दौर रहा है। इन्हीं विचारों की उपज में उस अकादमिक भ्रष्‍टाचार के उत्स हैं जिसने स्थितियों को और दयनीय बना दिया।
पिछले एक साल में, भवन आदि के निर्माण में अपेक्षाकृत तेज़ी आई है। ढांचागत निर्माण के जो काम पिछले कई सालों से प्रशासनिक इच्छा की कमी के कारण स्थगित पड़े रहे उनकी शुरुआत हो गई है। लेकिन अकादमिक तौर पर कोई भेदभावरहित व्यवस्था अब तक नहीं बन पाई है। न ही अकादमिक गुणवत्ता को बनाने का कोई पैमाना और आदर्श निर्मित किया गया है। इस बीच, कई बड़े, महत्त्वाकांक्षी जनसंपर्क समारोह आयोजित किए गए। इनमें हिंदी समाज के कई लेखक, कवि तथा आलोचकों ने अभिनंदनयुक्‍त भागीदारी की। आंशिक तौर पर लोगों की प्रदर्शनयुक्‍त भागीदारी सुनिश्‍चित हुई जिसके माध्यम से हिंदी के दूर-दूर तक पसरे साहित्यिक समाज को लुभावना संदेश दे दिया गया कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। और, भेदभाव के पुराने ढांचे क़ायम रहे। बस, औज़ार बदल गए। भाषा बदल गई, उसके स्वरूप में आंशिक हेरफेर किया गए लेकिन वर्चस्व के प्रतिमान नहीं बदले। अनुष्‍ठानिक गुणगान जारी रहे बस, उसकी पद्धतियां बदल गईं।
सत्ता के नीचे के पायदानों पर ऐसे कई लोग हैं जिनका व्यवहार प्रमाणिक रूप से जातिवादी हैं। जो अपने अधिष्‍ठाता, विभागाध्यक्ष या पदाधिकारी होने के रसूख का इस्तेमाल अपने भ्रष्‍ट आचरण को मूंदने-ढांपने के लिए करते हैं। साफ़ साफ़ असहमति व्यक्‍त करने वाले छात्र-छात्राओं, शिक्षकों और ग़ैर-शैक्षणिक कर्मचारियों को मानसिक तौर पर उत्पीड़ित करते हैं। अब बात बात पर भयाक्रांत करने वाली नौकरशाही घुड़कियों का एक ऐसा मज़बूत घेरा निर्मित हुआ है कि अधिकतर लोग चुपचाप प्रशासन से सुविधाजनक नज़दीकी बनाए रखने में ही अपनी भलाई समझने लगे हैं। आम छात्र-छात्राओं के बीच यह यह बात सौ फ़ीसदी प्रमाणित हो गई है कि विश्‍वविद्यालय में उन्हीं विद्यार्थियों को तरक़्क़ी या ’नियुक्‍ति’ मिलती है जो हां में हां मिलाते हुए ’फ़ील गुड’ मुद्रा में रहते हैं। अकादमिक कौंसिल में छात्र-छात्रा प्रतिनिधियों के नाम पर हुई हालिया नियुक्‍ति इसका सर्वाधिक ज्वलंत उदाहरण है जहां मनमाने ढंग से यह नियुक्‍तियां संपन्न कर ली गईं। सौ से अधिक छात्र छात्राओं के विरोध पत्र के बावजूद अब तक कोई उचित कारवाई नहीं की गई है। अंततः आंदोलन का रास्ता अख़्तियार करने वाले छात्र राहुल कांबले को अब तक न्याय नहीं मिल पाया है। आज नागपुर तथा वर्धा के स्थानीय मीडिया में जो ख़बरें छपी हैं उनमें लफ़्फ़ाज़ियों तथा स्तुतिगान का एक नपा तुला मिश्रण मौजूद है।
यह एक दारूण दृश्‍य है कि आज जनसंपर्क के मुखौटे और पाखंड के घटाघोप के बीच अपनी न्यायपूर्ण मांगों के लिए विश्‍वविद्यालय में छात्र-छात्राओं का एक बड़ा समूह ’स्थापना दिवस’ को एक ’शोक दिवस’ के रूप में मना रहा है। तीन सौ नियमित विद्यार्थियों वाले हिंदी विश्‍वविद्यालय में कुछ छात्र पिछले बीस पच्चीस दिनों से भूखे बैठे हैं और ऐसे अनुष्‍ठान पूरे घमंड के साथ जारी हैं। ऐसे में तीन साल पुराने स्थापना दिवस समारोह की यादें ताज़ी हो जाना स्वाभाविक है, जब उस समय की संख्या के लिहाज़ से एक तिहाई छात्र-छात्राएं जेल में हों और अपनी क्रूरता को सामान्य बनाने (नॉर्मलाइज़ करने) के लिए विश्‍वविद्यालय प्रशासन मिठाइयां बांट रहा था।
क्या अब हिंदी के सक्रिय और चिंतित बुद्धिजीवियों को यह सवाल नहीं करना चाहिए कि हिंदी के नाम पर आख़िर यह कैसा समाज रचने की बुनियाद निर्मित की जा रही है?

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