देश भर में धर्मनिरपेक्ष प्रशासक की छवि निर्मित करने वाले पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कुलपति बनने के बाद दलितों का उत्पीड़न तेजी के साथ बढ़ा है। सवाल उठता है कि क्या कोई धर्मनिरपेक्षवादी जातिवादी नहीं हो सकता है? वर्धा विश्वविद्यालय में विभूति बाबू के आने के बाद दलित उत्पीड़न की घटनाएं एक नयी बहस खड़ी करती है। पेश है, सभी मामलों का सिलसिलेवार ब्यौरा…
मामला नंबर एक )) विश्वविद्यालय के अनुवाद विद्यापीठ में राहुल कांबले ने एमफिल की परीक्षा में टॉप (स्वर्ण पदक) किया लेकिन पीएचडी में उसका नामांकन नहीं किया गया। अनुवाद विद्यापीठ में दो विद्यार्थियों का ही नामांकन करने का फैसला विश्वविद्यालय ने किया। पीएचडी के लिए चयनित विद्यार्थियों में राहुल कांबले को तीसरे नंबर पर दिखाया गया। लेकिन जब चयनित दो विद्यार्थियों में से एक विद्यार्थी ने अनुवाद विद्यापीठ में पीएचडी में नामांकन नहीं लिया, तो राहुल ने अपना दावा पेश किया। लेकिन लगातार तीन महीने तक उसे प्रताड़ित किया गया। उसने नामांकन की पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए सूचना के अधिकार के तहत विश्वविद्यालय प्रशासन से जानकारी मांगी थी। अनुवाद विद्यापीठ के डीन प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव ने सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल करने की आड़ लेकर राहुल का नामांकन लेने से मना कर दिया। राहुल कुलपति विभूति नारायण राय के समक्ष अपनी फरियाद लेकर गया। लेकिन कुलपति ने बजाय उसके साथ न्याय करने के प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव से माफी मांगने का निर्देश दिया। राहुल ने प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव से चार बार माफी मांगी। उनके पैर तक पकड़े। लेकिन कुलपति ने नामांकन की स्वीकृति नहीं दी। आखिरकार राहुल ने आंदोलन करने की चेतावनी दी। आंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम ने राहुल के मामले को उठाया। 8 दिसंबर को विश्वविद्यालय ने दीक्षांत समारोह का आयोजन किया था। दलित छात्रों ने उसका बहिष्कार किया। दलित छात्रों का बड़ा हिस्सा दीक्षांत समारोह में दिये जाने वाले पदकों को लेने नहीं गया। उसी दिन राहुल कांबले आमरण अनशन पर भी बैठ गया। उसके बाद उसके समर्थन में कई दलित छात्र क्रमवार अनशन पर बैठने लगे। जबकि दीक्षांत समारोह में शामिल होने के लिए आये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष डा सुखदेव थोराट ने अनशन कर रहे विद्यार्थियों के पास जाकर उनके प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की। लेकिन डा थोराट के कहने के बावजूद विश्वविद्यालय प्रशासन राहुल का नामांकन लेने को तैयार नहीं हुआ। विद्यार्थियों ने कुलाधिपति नामवर सिंह से भी मुलाकात की। उन्होंने कहा कि दलितों का जितना नामांकन गांधी के विश्वविद्यालय में होता है, उतना आंबेडकर विश्वविद्यालयों में भी नहीं होता होगा। डा नामवर सिंह से विद्यार्थियों ने अनशन स्थल पर आने का अनुरोध किया लेकिन दो दिनों तक अनशन स्थल से सौ कदम की दूरी पर रहने के बावजूद वे अनशनकारी विद्यार्थियों से मिलने नहीं गये। कुलपति लगातार कई दिनों तक अनशन स्थल के बगल से ही सुबह टहलने के लिए निकलते रहे, लेकिन उन्होंने विद्यार्थियों से मिलने व बातचीत करने की ज़रूरत नहीं महसूस की। उन्होंने कहा कि विद्यार्थी छह माह और छह वर्ष तक भी आंदोलन करेंगे तो उनका नामांकन नहीं हो सकता है। प्रति कुलपति मानवशास्त्री डा नदीम हसनैन को यह दुख हुआ कि विद्यार्थियों के अनशन की वजह से उन्हें सुबह टहलने का अपना रास्ता बदलना पड़ा। ट्रेड यूनियन आंदोलन की पृष्ठभूमि वाले विशेष कर्तव्य अधिकारी राकेश (श्रीवास्तव) ने कहा कि वर्धा जले या महाराष्ट्र या हिंदुस्तान, राहुल का नामांकन नहीं किया जाएगा। दलित विद्यार्थी लगातार संघर्ष करते रहे।
मामला नंबर दो )) पिछले सत्र में विभूति नारायण राय के कार्यभार संभालने के बाद विश्वविद्यालय में जेआरएफ पाने वाले पहले छात्र संतोष बघेल को तुलनात्मक साहित्य में पीएचडी में नामांकन देने से मना कर दिया गया। संतोष विश्वविद्यालय में पदक प्राप्त मेधावी छात्र रहा है। नामांकन नहीं किये जाने की स्थिति में संतोष बघेल को आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा। दलित विद्यार्थियों ने जिला प्रशासन के सामने जाकर अनशन किया। लेकिन अनशन के दौरान विश्वविद्यालय प्रशासन का एक भी प्रतिनिधि उनसे मिलने नहीं गया। तब विश्वविद्यालय परिसर में संगठन बनाना और आंदोलन करना भी संभव नहीं था। पुलिस कुलपति का एक भय पूरे वातावरण में व्याप्त रहता था। बाद में उन विद्यार्थियों ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग समेत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के समक्ष गुहार लगायी और बताया कि पिछले तीन वर्षों से आरक्षण नियमों का पालन नहीं किया जा रहा है।
मामला नंबर तीन )) साहित्य में पहले पीएचडी में यदि दलित छात्रों के नामांकन हुए तो उन्हें किसी दलित शिक्षक के तहत ही शोध कराने की अघोषित व्यवस्था हनुमान प्रसाद शुक्ला के समय में रही है।
मामला नंबर चार )) 2009 में जनसंचार विभाग में पीएचडी में प्रवेश परीक्षा हुई और उसके बाद इंटरव्यू किये गये। जिस पैनल ने ये प्रक्रिया पूरी की, उसमें संस्कृति विद्यापीठ के डीन, विभागाध्यक्ष, प्रोफेसर, एक रीडर, एक विशेषज्ञ और अनुसूचित जाति एवं जनजाति की बतौर प्रतिनिधि एक रीडर थी। उस समय दस विद्यार्थियों को पीएचडी में लेना था। जब परीक्षा परिणाम आया तो उसमें पिछड़े, दलित विद्यार्थियों की तादाद ज़्यादा थी। वे आरक्षण की सीट से ज़्यादा सामान्य वर्ग के रूप में भी सफल घोषित किये गये। तब दस सीटों के लिए नामांकन करने की घोषणा की गयी थी। लेकिन वो परीक्षा परिणाम रद्द कर दिया गया। दोबारा परीक्षा आयोजित की गयी। दोबारा परीक्षा की प्रक्रिया किस तरह से पूरी की गयी, गौरतलब है। विश्वविद्यालय से बाहर के एक शिक्षक ने ही प्रश्नपत्र तैयार किया। परीक्षा की कॉपी जांची और वहीं इंटरव्यू में बैठा। इस बार अनुसूचित जाति एवं जनजाति का प्रतिनिधि पैनल में नहीं था। परीक्षा परिणाम तीन दिनों की प्रक्रिया में ही निकाल दिया गया। इस परीक्षा परिणाम में ज़्यादा सवर्ण विद्यार्थियों को चयनित किया गया। मज़े की बात कि इस पैनल में विभाग के एक भी शिक्षक को नहीं रखा गया। सीटों की संख्या भी दस से तेरह कर दी गयी।
मामला नंबर पांच )) दिसंबर 6, 2009 को आंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम ने महापरिनिर्वाण दिवस के अवसर पर मोमबत्ती यात्रा का कार्यक्रम आयोजित किया। यात्रा विश्वविद्यालय परिसर से होकर वर्धा स्थित आंबेडकर प्रतिमा तक गयी। इसमें दलित विद्यार्थियों के अलावा अन्य विद्यार्थी शामिल हुए। लेकिन पहली बात तो ये हुई कि इस यात्रा में विश्वविद्यालय के एक मात्र दलित प्रोफेसर लेल्ला कारुण्यकारा भी शामिल हुए तो उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। आरोप लगाया गया कि उन्होंने जातीय नारे लगाये। नारे थे – ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद, मनुवाद मुर्दाबाद, जातिवाद मुर्दाबाद आदि। प्रोफेसर कारुण्यकारा को दिये गये नोटिस में कहा गया कि उन्होंने परिसर का वातावरण दूषित किया। उन्हें सात दिनों के भीतर जवाब देने के लिए कहा गया। ये भी चेतावनी दी गयी कि यदि सात दिनों के भीतर जवाब नहीं दिया गया तो एकतरफा कार्रवाई कर ली जाएगी। ये नोटिस खुद विभूति नारायण राय ने जारी किया। दूसरी बात कि उसी दिन विश्वविद्यालय ने भारत-ईरान कलाओं के लोक आख्यान पर कार्यक्रम आयोजित किया। वह रविवार का दिन था। तीसरी बात कि शाम को लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट पर चर्चा के लिए विश्वविद्यालय के गांधी हिल्स पर एक अलग कार्यक्रम आयोजित किया गया।
मामला नंबर छह )) दिसंबर 6, 2008 को बाबासाहेब आंबेडकर दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र ने महापरिनिर्वाण दिवस मनाने का फैसला किया था। कार्यक्रम के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन से तीन हजार रुपये की मांग की गयी थी। लेकिन दो हजार रुपये ही स्वीकृत किये गये और उसी दिन पुस्तकालय में इससे अलग कविता पाठ का एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। इसका असर ये हुआ कि 6 दिसंबर 2009 को दलित जनजाति अध्ययन केंद्र ने कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया।
मामला नंबर सात )) दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र की बिल्डिंग के शिलान्यास पत्थर को गिरा दिया गया। इसका शिलान्यास विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष सुखदेव थोराट ने 22 फरवरी 2007 को किया था। इसका दोबारा शिलान्यास कराने की योजना बनी और राज्यपाल आरएस गवई को 2 दिसंबर 2009 को आमंत्रित किया गया। लेकिन वो नहीं आये। आज भी वो शिलान्यास पत्थर कूड़े के ढेर के समान पड़ा हुआ है।
मामला नंबर आठ )) डा आंबेडकर दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र के भवन के निर्माण के लिए एक करोड़ रुपये मिले थे। लेकिन उसका इस्तेमाल दूसरी बिल्डिंग बनाने में कर दिया गया।
मामला नंबर नौ )) कुलपति विभूति नारायण राय ने कार्यभार संभालने के बाद तीन शिक्षकों को चार कारण बताओ नोटिस जारी किया और वे सभी शिक्षक दलित एवं आदिवासी हैं।
मामला नंबर दस )) कुलपति विभूति नारायण राय ने अपने कार्यकाल में एक वर्ष के अंदर पचास से ज़्यादा अस्थायी बहालियां की, उनमें एक भी दलित एवं आदिवासी नहीं है।
मामला नंबर ग्यारह )) दलित छात्र-छात्राओं के खिलाफ जातिगत पूर्वाग्रहों को कई बार घटनाओं के रूप में सामने रखना संभव नहीं हो पाता है। ऐसी न जाने कितनी बातें हैं, जो केवल दलित महसूस करता है कि उसके साथ जातिगत भेदभाव किया जा रहा है।
मामला नंबर बारह )) दलित विद्यार्थियों का आठ महीने तक राजीव गांधी फेलोशिप रोके रखा गया।
मामला नंबर तेरह )) कुलपति ने विश्वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के दलित नेताओं को लंपट कहा।
मामला नंबर चौदह )) कुलपति ये कहते हैं कि दलित इस विश्वविद्यालय में केवल फैलोशिप के लिए आते हैं।
मामला नंबर पंद्रह )) सहायक रजिस्ट्रार (वित्त) सुशील पखिडे वित्त के एकमात्र स्थायी अधिकारी हैं, लेकिन उन्हें वित्त से हटा दिया गया और डिस्टेंस (दूरस्थ शिक्षा विभाग) में भेज दिया गया।
मामला नंबर सोलह )) आयुष छात्रावास के छात्र के रूप में अमरेंद्र शर्मा के खिलाफ एससी-एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज है। उन्हें आयुष छात्रावास का ही वार्डेन बना दिया गया। जब विद्यार्थियों ने विरोध किया तो दूसरे छात्रावास का वार्डेन बना दिया गया।
मामला नंबर सत्रह )) विश्वविद्यालय में किसी विद्यार्थी को फेल नहीं किया गया है, लेकिन दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र के तीन विद्यार्थियों को फेल कर दिया गया।
एक तरफ तो दलितों के उत्पीड़न की ऐसी शिकायतें हैं, तो दूसरी तरफ जातिवाद के कुछ और नमूने भी देखे जा सकते हैं।
नमूना नंबर एक »» विश्वविद्यालय के शांति एवं अहिंसा विभाग के अस्सिटेंट प्रोफेसर मनोज राय को दिल्ली सेंटर का प्रभारी बनाया गया। नियमत: ये गलत है। इन महोदय को वेतन वर्धा में विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए दिया जाता है, लेकिन ये महोदय कक्षा नहीं लेते हैं, बल्कि उन्हें दिल्ली में मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की डीलिंग के काम में लगाया गया है। तीसरी बात कि कुलपति स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, लेकिन मनोज राय घोषित तौर पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़े रहे हैं। मनोज राय ने सूचना के अधिकार के तहत बतौर सूचना अधिकारी सूचना लेने की फीस दस रुपये से बढ़ा कर नियमों के विपरीत पचास रुपये कर दिया था। चूंकि वे स्वजातीय हैं, इसीलिए उनके लिए सब क्षम्य है और वे ईनाम पाने के हर तरह से हकदार हैं।
नमूना नंबर दो »» विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग का प्रमुख डा अनिल कुमार राय अंकित को बनाया गया है। वे दक्षिणपंथी विचारों के हैं। उनके नाम से छपी दर्जनों किताबों के बारे में पूरे देश में ये छपा है और चैनलों में दिखाया गया है कि उन्होंने अपनी किताबें दूसरे लेखकों की किताबों से सामग्री लेकर छापी है। उन्हें चोर गुरु के रूप में सभी जानते हैं। कुलपति को भी ये सब पता है। उनके यहां बाकायदा शिक़ायत दर्ज करायी गयी है। ये सब तथ्य डा अंकित की नियुक्ति के समय भी उनके सामने मौजूद थे। लेकिन ये उनके स्वजातीय हैं, इसीलिए उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने के बजाय दीक्षांत समारोह के लिए उन्हें हजारों का बजट देकर मीडिया प्रभारी बना दिया गया।
जातिवादी कौन है?
आप इसे दुनिया को बताएं। धर्मनिरपेक्षतावादी की छवि बनाकर जातिवाद को कैसे सुरक्षित रखा जाता है।
मामला नंबर एक )) विश्वविद्यालय के अनुवाद विद्यापीठ में राहुल कांबले ने एमफिल की परीक्षा में टॉप (स्वर्ण पदक) किया लेकिन पीएचडी में उसका नामांकन नहीं किया गया। अनुवाद विद्यापीठ में दो विद्यार्थियों का ही नामांकन करने का फैसला विश्वविद्यालय ने किया। पीएचडी के लिए चयनित विद्यार्थियों में राहुल कांबले को तीसरे नंबर पर दिखाया गया। लेकिन जब चयनित दो विद्यार्थियों में से एक विद्यार्थी ने अनुवाद विद्यापीठ में पीएचडी में नामांकन नहीं लिया, तो राहुल ने अपना दावा पेश किया। लेकिन लगातार तीन महीने तक उसे प्रताड़ित किया गया। उसने नामांकन की पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए सूचना के अधिकार के तहत विश्वविद्यालय प्रशासन से जानकारी मांगी थी। अनुवाद विद्यापीठ के डीन प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव ने सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल करने की आड़ लेकर राहुल का नामांकन लेने से मना कर दिया। राहुल कुलपति विभूति नारायण राय के समक्ष अपनी फरियाद लेकर गया। लेकिन कुलपति ने बजाय उसके साथ न्याय करने के प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव से माफी मांगने का निर्देश दिया। राहुल ने प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव से चार बार माफी मांगी। उनके पैर तक पकड़े। लेकिन कुलपति ने नामांकन की स्वीकृति नहीं दी। आखिरकार राहुल ने आंदोलन करने की चेतावनी दी। आंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम ने राहुल के मामले को उठाया। 8 दिसंबर को विश्वविद्यालय ने दीक्षांत समारोह का आयोजन किया था। दलित छात्रों ने उसका बहिष्कार किया। दलित छात्रों का बड़ा हिस्सा दीक्षांत समारोह में दिये जाने वाले पदकों को लेने नहीं गया। उसी दिन राहुल कांबले आमरण अनशन पर भी बैठ गया। उसके बाद उसके समर्थन में कई दलित छात्र क्रमवार अनशन पर बैठने लगे। जबकि दीक्षांत समारोह में शामिल होने के लिए आये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष डा सुखदेव थोराट ने अनशन कर रहे विद्यार्थियों के पास जाकर उनके प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की। लेकिन डा थोराट के कहने के बावजूद विश्वविद्यालय प्रशासन राहुल का नामांकन लेने को तैयार नहीं हुआ। विद्यार्थियों ने कुलाधिपति नामवर सिंह से भी मुलाकात की। उन्होंने कहा कि दलितों का जितना नामांकन गांधी के विश्वविद्यालय में होता है, उतना आंबेडकर विश्वविद्यालयों में भी नहीं होता होगा। डा नामवर सिंह से विद्यार्थियों ने अनशन स्थल पर आने का अनुरोध किया लेकिन दो दिनों तक अनशन स्थल से सौ कदम की दूरी पर रहने के बावजूद वे अनशनकारी विद्यार्थियों से मिलने नहीं गये। कुलपति लगातार कई दिनों तक अनशन स्थल के बगल से ही सुबह टहलने के लिए निकलते रहे, लेकिन उन्होंने विद्यार्थियों से मिलने व बातचीत करने की ज़रूरत नहीं महसूस की। उन्होंने कहा कि विद्यार्थी छह माह और छह वर्ष तक भी आंदोलन करेंगे तो उनका नामांकन नहीं हो सकता है। प्रति कुलपति मानवशास्त्री डा नदीम हसनैन को यह दुख हुआ कि विद्यार्थियों के अनशन की वजह से उन्हें सुबह टहलने का अपना रास्ता बदलना पड़ा। ट्रेड यूनियन आंदोलन की पृष्ठभूमि वाले विशेष कर्तव्य अधिकारी राकेश (श्रीवास्तव) ने कहा कि वर्धा जले या महाराष्ट्र या हिंदुस्तान, राहुल का नामांकन नहीं किया जाएगा। दलित विद्यार्थी लगातार संघर्ष करते रहे।
मामला नंबर दो )) पिछले सत्र में विभूति नारायण राय के कार्यभार संभालने के बाद विश्वविद्यालय में जेआरएफ पाने वाले पहले छात्र संतोष बघेल को तुलनात्मक साहित्य में पीएचडी में नामांकन देने से मना कर दिया गया। संतोष विश्वविद्यालय में पदक प्राप्त मेधावी छात्र रहा है। नामांकन नहीं किये जाने की स्थिति में संतोष बघेल को आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा। दलित विद्यार्थियों ने जिला प्रशासन के सामने जाकर अनशन किया। लेकिन अनशन के दौरान विश्वविद्यालय प्रशासन का एक भी प्रतिनिधि उनसे मिलने नहीं गया। तब विश्वविद्यालय परिसर में संगठन बनाना और आंदोलन करना भी संभव नहीं था। पुलिस कुलपति का एक भय पूरे वातावरण में व्याप्त रहता था। बाद में उन विद्यार्थियों ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग समेत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के समक्ष गुहार लगायी और बताया कि पिछले तीन वर्षों से आरक्षण नियमों का पालन नहीं किया जा रहा है।
मामला नंबर तीन )) साहित्य में पहले पीएचडी में यदि दलित छात्रों के नामांकन हुए तो उन्हें किसी दलित शिक्षक के तहत ही शोध कराने की अघोषित व्यवस्था हनुमान प्रसाद शुक्ला के समय में रही है।
मामला नंबर चार )) 2009 में जनसंचार विभाग में पीएचडी में प्रवेश परीक्षा हुई और उसके बाद इंटरव्यू किये गये। जिस पैनल ने ये प्रक्रिया पूरी की, उसमें संस्कृति विद्यापीठ के डीन, विभागाध्यक्ष, प्रोफेसर, एक रीडर, एक विशेषज्ञ और अनुसूचित जाति एवं जनजाति की बतौर प्रतिनिधि एक रीडर थी। उस समय दस विद्यार्थियों को पीएचडी में लेना था। जब परीक्षा परिणाम आया तो उसमें पिछड़े, दलित विद्यार्थियों की तादाद ज़्यादा थी। वे आरक्षण की सीट से ज़्यादा सामान्य वर्ग के रूप में भी सफल घोषित किये गये। तब दस सीटों के लिए नामांकन करने की घोषणा की गयी थी। लेकिन वो परीक्षा परिणाम रद्द कर दिया गया। दोबारा परीक्षा आयोजित की गयी। दोबारा परीक्षा की प्रक्रिया किस तरह से पूरी की गयी, गौरतलब है। विश्वविद्यालय से बाहर के एक शिक्षक ने ही प्रश्नपत्र तैयार किया। परीक्षा की कॉपी जांची और वहीं इंटरव्यू में बैठा। इस बार अनुसूचित जाति एवं जनजाति का प्रतिनिधि पैनल में नहीं था। परीक्षा परिणाम तीन दिनों की प्रक्रिया में ही निकाल दिया गया। इस परीक्षा परिणाम में ज़्यादा सवर्ण विद्यार्थियों को चयनित किया गया। मज़े की बात कि इस पैनल में विभाग के एक भी शिक्षक को नहीं रखा गया। सीटों की संख्या भी दस से तेरह कर दी गयी।
मामला नंबर पांच )) दिसंबर 6, 2009 को आंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम ने महापरिनिर्वाण दिवस के अवसर पर मोमबत्ती यात्रा का कार्यक्रम आयोजित किया। यात्रा विश्वविद्यालय परिसर से होकर वर्धा स्थित आंबेडकर प्रतिमा तक गयी। इसमें दलित विद्यार्थियों के अलावा अन्य विद्यार्थी शामिल हुए। लेकिन पहली बात तो ये हुई कि इस यात्रा में विश्वविद्यालय के एक मात्र दलित प्रोफेसर लेल्ला कारुण्यकारा भी शामिल हुए तो उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। आरोप लगाया गया कि उन्होंने जातीय नारे लगाये। नारे थे – ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद, मनुवाद मुर्दाबाद, जातिवाद मुर्दाबाद आदि। प्रोफेसर कारुण्यकारा को दिये गये नोटिस में कहा गया कि उन्होंने परिसर का वातावरण दूषित किया। उन्हें सात दिनों के भीतर जवाब देने के लिए कहा गया। ये भी चेतावनी दी गयी कि यदि सात दिनों के भीतर जवाब नहीं दिया गया तो एकतरफा कार्रवाई कर ली जाएगी। ये नोटिस खुद विभूति नारायण राय ने जारी किया। दूसरी बात कि उसी दिन विश्वविद्यालय ने भारत-ईरान कलाओं के लोक आख्यान पर कार्यक्रम आयोजित किया। वह रविवार का दिन था। तीसरी बात कि शाम को लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट पर चर्चा के लिए विश्वविद्यालय के गांधी हिल्स पर एक अलग कार्यक्रम आयोजित किया गया।
मामला नंबर छह )) दिसंबर 6, 2008 को बाबासाहेब आंबेडकर दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र ने महापरिनिर्वाण दिवस मनाने का फैसला किया था। कार्यक्रम के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन से तीन हजार रुपये की मांग की गयी थी। लेकिन दो हजार रुपये ही स्वीकृत किये गये और उसी दिन पुस्तकालय में इससे अलग कविता पाठ का एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। इसका असर ये हुआ कि 6 दिसंबर 2009 को दलित जनजाति अध्ययन केंद्र ने कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया।
मामला नंबर सात )) दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र की बिल्डिंग के शिलान्यास पत्थर को गिरा दिया गया। इसका शिलान्यास विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष सुखदेव थोराट ने 22 फरवरी 2007 को किया था। इसका दोबारा शिलान्यास कराने की योजना बनी और राज्यपाल आरएस गवई को 2 दिसंबर 2009 को आमंत्रित किया गया। लेकिन वो नहीं आये। आज भी वो शिलान्यास पत्थर कूड़े के ढेर के समान पड़ा हुआ है।
मामला नंबर आठ )) डा आंबेडकर दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र के भवन के निर्माण के लिए एक करोड़ रुपये मिले थे। लेकिन उसका इस्तेमाल दूसरी बिल्डिंग बनाने में कर दिया गया।
मामला नंबर नौ )) कुलपति विभूति नारायण राय ने कार्यभार संभालने के बाद तीन शिक्षकों को चार कारण बताओ नोटिस जारी किया और वे सभी शिक्षक दलित एवं आदिवासी हैं।
मामला नंबर दस )) कुलपति विभूति नारायण राय ने अपने कार्यकाल में एक वर्ष के अंदर पचास से ज़्यादा अस्थायी बहालियां की, उनमें एक भी दलित एवं आदिवासी नहीं है।
मामला नंबर ग्यारह )) दलित छात्र-छात्राओं के खिलाफ जातिगत पूर्वाग्रहों को कई बार घटनाओं के रूप में सामने रखना संभव नहीं हो पाता है। ऐसी न जाने कितनी बातें हैं, जो केवल दलित महसूस करता है कि उसके साथ जातिगत भेदभाव किया जा रहा है।
मामला नंबर बारह )) दलित विद्यार्थियों का आठ महीने तक राजीव गांधी फेलोशिप रोके रखा गया।
मामला नंबर तेरह )) कुलपति ने विश्वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के दलित नेताओं को लंपट कहा।
मामला नंबर चौदह )) कुलपति ये कहते हैं कि दलित इस विश्वविद्यालय में केवल फैलोशिप के लिए आते हैं।
मामला नंबर पंद्रह )) सहायक रजिस्ट्रार (वित्त) सुशील पखिडे वित्त के एकमात्र स्थायी अधिकारी हैं, लेकिन उन्हें वित्त से हटा दिया गया और डिस्टेंस (दूरस्थ शिक्षा विभाग) में भेज दिया गया।
मामला नंबर सोलह )) आयुष छात्रावास के छात्र के रूप में अमरेंद्र शर्मा के खिलाफ एससी-एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज है। उन्हें आयुष छात्रावास का ही वार्डेन बना दिया गया। जब विद्यार्थियों ने विरोध किया तो दूसरे छात्रावास का वार्डेन बना दिया गया।
मामला नंबर सत्रह )) विश्वविद्यालय में किसी विद्यार्थी को फेल नहीं किया गया है, लेकिन दलित एवं जनजाति अध्ययन केंद्र के तीन विद्यार्थियों को फेल कर दिया गया।
एक तरफ तो दलितों के उत्पीड़न की ऐसी शिकायतें हैं, तो दूसरी तरफ जातिवाद के कुछ और नमूने भी देखे जा सकते हैं।
नमूना नंबर एक »» विश्वविद्यालय के शांति एवं अहिंसा विभाग के अस्सिटेंट प्रोफेसर मनोज राय को दिल्ली सेंटर का प्रभारी बनाया गया। नियमत: ये गलत है। इन महोदय को वेतन वर्धा में विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए दिया जाता है, लेकिन ये महोदय कक्षा नहीं लेते हैं, बल्कि उन्हें दिल्ली में मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की डीलिंग के काम में लगाया गया है। तीसरी बात कि कुलपति स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, लेकिन मनोज राय घोषित तौर पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़े रहे हैं। मनोज राय ने सूचना के अधिकार के तहत बतौर सूचना अधिकारी सूचना लेने की फीस दस रुपये से बढ़ा कर नियमों के विपरीत पचास रुपये कर दिया था। चूंकि वे स्वजातीय हैं, इसीलिए उनके लिए सब क्षम्य है और वे ईनाम पाने के हर तरह से हकदार हैं।
नमूना नंबर दो »» विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग का प्रमुख डा अनिल कुमार राय अंकित को बनाया गया है। वे दक्षिणपंथी विचारों के हैं। उनके नाम से छपी दर्जनों किताबों के बारे में पूरे देश में ये छपा है और चैनलों में दिखाया गया है कि उन्होंने अपनी किताबें दूसरे लेखकों की किताबों से सामग्री लेकर छापी है। उन्हें चोर गुरु के रूप में सभी जानते हैं। कुलपति को भी ये सब पता है। उनके यहां बाकायदा शिक़ायत दर्ज करायी गयी है। ये सब तथ्य डा अंकित की नियुक्ति के समय भी उनके सामने मौजूद थे। लेकिन ये उनके स्वजातीय हैं, इसीलिए उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने के बजाय दीक्षांत समारोह के लिए उन्हें हजारों का बजट देकर मीडिया प्रभारी बना दिया गया।
जातिवादी कौन है?
आप इसे दुनिया को बताएं। धर्मनिरपेक्षतावादी की छवि बनाकर जातिवाद को कैसे सुरक्षित रखा जाता है।
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