सोमवार, 31 मई 2010
वर्धा विवि के सलाहकार नहीं हैं अजित राय: वीसी सूत्र
सोमवार, 8 मार्च 2010
हिन्दी विश्वविद्यालय में तानाशाही का जिम्मेदार कौन
मीडिया विभाग के एक छात्र अनिल को विश्वविद्यालय से निष्काशित करने के पीछे प्राक्टर मनोज कुमार और अनिल अंकित राय ने अपनी पूरी ताकत लगा दी. मनोज कुमार कथित तौर पर गाँधीवादी कार्यकर्ता रहे हैं पर इनका गाँधीवाद किस तरह का है यह इस घटना और उनकी क्रूर कार्यवाहियों से समझा जा सकता है. दिनांक १६ नवम्बर की बात है जब मीडिया विभाग में एक सेमिनार चल रहा था और अनिल नाम के एक शोधार्थी जब सेमिनार में बैठने गये तो उन्हें यह कहा गया कि वे नहीं बैठ सकते जबकि विश्वविद्यालय की परम्परा में अंतरानुसाशनिक विषयों के कारण कोई भी छात्र सेमिनार में बैठते रहे हैं. वहाँ पर बैठे छात्रों ने हस्तक्षेप कर अध्यापक अख्तर आलम से जब यह बात कही तो अनिल को सेमिनार में बैठ्ने दिया गया. जब एक छात्र द्वारा सेमिनार में कुछ गलत तथ्य प्रस्तुत किया गया तो अनिल उसे सुधारने के लिये सही तथ्य रखा इस बात पर अख्तर आलम ने उन्हें रोका और कहा कि आप बैठ सकते हैं पर कुछ बोल नहीं सकते. यह घटना है जिस आधार पर विश्वविद्यालय से एक छात्र को निष्कासित किया जाता है.
इस निष्कासन के कुछ महत्वपूर्ण पहलू हैं जिससे निष्कासन के परोक्ष कारणों को भी समझा जा सकता है.
सेमिनार के बाद अख्तर आलम से शोधार्थी अनिल ने लम्बी बात-चीत की और अख्तर आलम भी इस घटना को कोई तरजीह न देते हुए संतुष्ट दिखे. अनिल राय अंकित चोर गुरु (वर्धा) द्वारा अख्तर आलम से कहकर एक पत्र बनवाया गया जिसमे लिखा गया कि छात्र अनिल ने कक्षा को बाधित किया और इस आधार पर प्राक्टर मनोज कुमार और अनिल राय अंकित जो गहरे मित्र हैं ने मिलकर निष्कासन की एक रूपरेखा बनायी. पहले कारण बताओ नोटिस दिया गया जिसका एक जबाब शोधार्थी अनिल ने ३ पन्नों में विस्तृत रूप से तैयार करके दिया पर इस जबाब से प्राक्टर मनोज कुमार संतुष्ट नहीं हुए क्योंकि उन्हें संतुष्ट होना ही नहीं था यदि होते भी तो अनिल राय अंकित उसको असंतुष्टि में बदल देते यह जबाब कुलपति विभूति नरायण राय को प्रस्तुत किया गया और पूरे मसले पर उन्हों ने एक जाँच कमेटी बना दी. जांच कमेटी में अशोक नाथ त्रिपाठी, विश्वविद्यालय में दलित उत्पीड़न के लिये कुख्यात आत्म प्रकाश श्रीवास्तव व मनोज कुमार के विभाग के एक अध्यापक निपेन्द्र मोदी को रखा गया. इसमे किसी भी छात्र प्रतिनिधि को शामिल करना विश्वविद्यालय ने उचित नहीं समझा चूंकि सब कुछ अनिल राय अंकित और प्राक्टर द्वारा पहले से तय कर लिया गया था जिसका आगे हम विवरण प्रस्तुत करेंगे.
कमेटी की जाँच प्रक्रिया-
१- जाँच कमेटी ने अनिल से कोई बातचीत नहीं की न ही उनके किसी पक्ष को सुना.
२- जाँच कमेटी ने घटना पर उपस्थित किसी भी छात्र से कोई बातचीत नहीं की.
३- जाँच कमेटी के सदस्यों से कुछ छात्रों ने बात की जिससे पता चला कि अनिल राय अंकित और प्राक्टर मनोज कुमार के बयानों के आधार पर यह जाँच प्रक्रिया पूरी कर ली गयी.
४- इस पूरी प्रक्रिया में महज एक हप्ते लगे पर अनिल को निष्कासित तब किया गया जब अनिल चमड़िया के मामले पर कुलपति को छात्र अनिल द्वारा एक पत्र लिखा गया और अपनी असहमति दर्ज कराने के साथ पी.एच.डी. छोड़ने की बात कही गयी. यानि घटना के ४ माह बाद दिनांक १७ फरवरी को निष्कासन की नोटिस निकाली गयी.
इस मनमानी कार्यवाही के खिलाफ सभी छात्रों की एक आम सभा बुलायी गयी जिसमे छात्रों ने इस मनमानी कार्यवाही पर प्राक्टर का घेराव किया और उनसे कुछ सवाल पूछे जिसका जबाब प्राक्टर मनोज कुमार के पास नहीं था. मसलन प्राक्टर द्वारा किस समय सीमा तक किसी छात्र को निष्कासित किया जा सकता है यह अध्यादेश के हवाले से स्पष्ट करें? पर प्राक्टर मनोज कुमार को अध्यादेश तक नहीं पता था न ही उन्हें उनका अधिकार जब छात्रों ने विश्वविद्यालय के अधिनियम के अनुच्छेद १८, अध्यादेश १२ की धारा १० बी व धारा के बिंदु ११ को उन्हें पढ़ाया तो वे चुप हो गये. इस तरह के कई सवाल किये गये पर प्राक्टर मनोज कुमार के पास उसका कोई जबाब नहीं था और वे यह बोलते हुए कि हम इसे देखेंगे, वहाँ से चले गये. इस आधार पर छात्रों द्वारा एक हस्ताक्षर किया गया जिसमे अनिल के अन्यायपूर्ण निष्कासन को तुरंत वापस लेने की मांग की गयी पर प्राक्टर मनोज कुमार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया बल्कि निष्कासन की नोटिस कई दिनों तक अपने पास रखे. होली की छुट्टियों में जब छात्र घर चले गये तो वही अवैद्य नोटिस जो विश्वविद्यालय अधिनियम में प्राक्टर के अधिकारों के खिलाफ थी प्राक्टर द्वारा अनिल को दी गयी जिसे अनिल ने इस आधार पर अस्वीकृत कर दिया कि यह गैरकानूनी है क्योंकि प्राक्टर द्वारा किसी छात्र का निष्कासन अधिकतम १५ दिनों के लिये किया जा सकता था.
निष्कासन में न केवल विभाग बल्कि हास्टल और विश्वविद्यालय से भी निष्कासित किया गया और प्रतिदिन हास्टल में पुलिस भेजकर अनिल जिस भी छात्र के कमरे में ठहरते उन्हें परेशान किया जाता रहा. यह शहर में कर्फ्यू नहीं था बल्कि एक छात्र के लिये उस विश्वविद्यालय में कर्फ्यू लगा दिया गया जिसके कुलपति विभूति नारायण राय है. इस अन्याय पूर्ण कार्यवाही से क्या विभूति नारायण राय जी वाकिफ नहीं रहे या अभी तक नहीं हैं?
सोमवार, 15 फ़रवरी 2010
मीडिया विभाग के छात्रों द्वारा वहिस्कार
प्रति,
कुलपति
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
विषय : जनसंचार विभाग के अनिश्िचतकालीन बहिष्कार की सूचना
हमें ज्ञात हुआ है कि जनसंचार विभाग के शिक्षक प्रो अनिल चमड़िया को विश्वविद्यालय द्वारा तत्काल प्रभाव से सेवामुक्त कर दिया गया है। इस निर्णय के लिए विजिटर द्वारा नामित छह सदस्यीय कार्यकारी समिति की पहली बैठक के कार्यवृत्त का हवाला दिया गया है।यह कदम कुलपति विभूति नारायण राय के मनमानेपन और नियम कानून को ताक पर रख काम करने के उनके रवैये की ही एक कड़ी है। इस निर्णय से न सिर्फ विश्वविद्यालय, उसके अधिनियम और न्याय की भावना के साथ खिलवाड़ हुआ है बल्कि न्यायालय के निर्णय से पहले ही स्वघोषित, मनमाना निर्णय सुनाया है, जिससे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का भी घोर उल्लंघन किया गया है। इस पूरी प्रक्रिया में, इक्जिक्यूटिव कौंसिल को मामले की आधी-अधूरी जानकारी देते हुए उसे एक कवर के रूप में इस्तेमाल किया गया है। वहीं, दूसरी ओर प्रोफेसर और वर्तमान में विभागाध्यक्ष अनिल कुमार राय अंकित के ऊपर चोरी करके कई किताबें लिखने के आरोप के बावजूद इक्जिक्यूटिव कौंसिल से उनकी नियुक्ति का कनफर्मेशन हासिल किया गया है। अनिल अंकित राय के कारनामों के बारे में देश के मीडिया में लगातार खबरें आ रही हैं। ऐसे में ये निर्णय कुलपति विभूति नारायण राय की मनमानियों का स्पष्ट प्रमाण हैं।हम छात्र-छात्राएं कुलपति के इस निरंकुश निर्णय से सर्वाधिक प्रभावित लोग हैं। अनिल चमड़िया न सिर्फ देश के एक जाने माने पत्रकार हैं बल्कि वे देश भर के प्रमुख पत्रकारिता संस्थानों में मीडिया के एक लोकप्रिय शिक्षक हैं और इसलिए हमारे विश्वविद्यालय द्वारा चयन की पूरी प्रक्रिया के तहत उनके आउटस्टैंडिंग वर्क रिकॉर्ड के आधार पर बतौर एमिनेंट स्कॉलर प्रोफेसर पद पर चयन किया गया था। यह बेहद अफ़सोसनाक है कि विजिटर द्वारा नामित कार्यकारी परिषद ने सभी जरूरी तथ्यों की जांच-पड़ताल किये बगैर कुलपति के इस मनमाने निर्णय पर मुहर लगा दी है।हम छात्र-छात्राएं इन मनमाने निर्णय के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराते हुए जनसंचार विभाग के अनिश्िचतकालीन बहिष्कार की घोषणा करते हैं। और अगर इस पर तत्काल उचित कार्रवाई नहीं की जाती तो विरोध स्वरूप अगले कदम के बतौर हम अपनी डिग्री त्याग देंगे।
छात्र छात्राएंअनिल, लक्ष्मण प्रसाद, दिनेश मुरार, चंद्रिका, अमिता, दिलीप, देवाशीष प्रसून, उमा साह, अतुल कुमार सिंह, आजाद अंसारी, भानु प्रताप, धीरज कांबले, उत्पल कांत, रोशनी, ईशा, सुनील घोड़के, राजदीप राठौर, रत्नाकर, नीलेश झाल्टे, हरि प्रताप सिंह, गुंजेश, रेणु कुमारी, रत्नेश, अजयप्रतिलिपि,1)
विजिटर, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
विजिटर द्वारा नामित सभी सदस्य, कार्यकारी परिषद
कैबिनेट मंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, नयी दिल्ली
अध्यक्ष, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग
रविवार, 14 फ़रवरी 2010
सबसे अहम मौके पर तुम हार गये हो “विभूति”
सवाल, सवाल होते हैं
जिसे तुम हर बार टाल जाते हो
बचकाना कहकर
तुम्हारी लड़ाईयों पर हमे यकीन है
हमे यकीन है कि हम बचे हैं
हमारे बच्चे मस्जिद में अब भी
नमाज़ अदा करने जाते हैं
थोड़ा डर सहम के साथ
वे गुजरात में भी रह ही लेते हैं
हमारे जिंदा होने का सुबूत हैं
वे लड़ाईयाँ
जो लड़ी गयी
जिसमे तुम भी शामिल थे
सुना था कि
शहर और कर्फ्यू एक साथ नहीं रहे वहाँ
जहाँ तुम मौजूद थे
आये भी तो किताबों में छिपकर
तुम्हारे तबादले के बाद
सुना है कि
तबादला, शहर, कर्फ्यू, और चोर हैं
तुम भी वहीं कहीं
उम्र की बढ़त और साहस की कमी के साथ
सुनाने वाले ने कहा था
“मैं झूठ नहीं बोलता”
यह बोलकर
कोई कितना भी झूठ बोले
कोई कैसे टोकेगा
क्या किताबें अब सिरहाने की तकिया हो गयी हैं “विभूति नारायण”
जिसका इश्तेमाल वही करते हैं
जो सोने की तैयारी में हैं
अपनी कमसिन उम्र में मैने चाहा था
और मैं खुश हूँ कि
मेरी चाहत अब भी बची हुई है
कि किताबें जूता बन जायें
चलने के पहले हर आदमी के पैर कसने का
आदमी के बदलने से
आदमीयत से भरोसा अभी भी नहीं उठा “विभूति नारायण”
कई लोगों के जीने की वज़ह बहुत मामूली होती है
जबकि मामूली जीजें कई पीढ़ीयों तक हल नहीं होती
तुमने किताब को किताब कहा
जिसे पढ़ा जाना चाहिये
सिद्धान्त को सिद्धान्त कहा
जिसे गढ़ा जाना चाहिये
और लगा दिये हैं कई लोहार और बढ़ई
जिन्हें चस्मा और कुदाल में फर्क करना नहीं आता
पर तुम तो बखूबी जानते हो
अगर चस्मे को तुम कुल्हाड़ी कहोगे
तो कितने सारे कहेंगे कुल्हाड़ी
और यह भी जानते हो
कि वे क्यों कह रहे हैं
चस्मे को कुल्हाड़ी
जबकि तुम, वे, हम, सब
जानते हैं कि चस्मा, चस्मा होता है कुल्हाड़ी होती है कुल्हाड़ी
एक झूठी लड़ाई कितनी आसान होती है
तब जब लोग उलझ गये हों झूठ में,
और झूठ, झूठ कहाँ रहता है
जबतक कोई उंगली उठाकर यह न कहे “यह रहा झूठ”
जबकि तुम सोचो
सच में सोचो, सच के बारे में
उस सच के बारे में, जिसे तुम खुद से कह सको
कि सच यह था
तुम तलासो ईमानदारी, आदमी के इर्द-गिर्द बची रह जाती है
उम्र से ईमानदारी का कोई सीधा नाता नहीं
तुम्हें भी मिल ही जायेगी
तुम्हारे कुर्ते के जेब में
या बटन के धागे में
कम ही सही
वह जो बचा था तुम्हारे लिये
वे लड़ाईयां जिन्हें तुमने जीता है
किन्हीं मोर्चों पर
और जिनके खिलाफ तुम लड़े
आज तुम्हारे साथ खड़े हैं
शायद सबसे अहम मौके पर तुम हार गये हो “विभूति नारायण”.
विश्वविद्यालय के एक छात्र द्वारा भेजी गयी.
बुधवार, 10 फ़रवरी 2010
श्री विभूति नारायण राय, कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के नाम एक पत्र
प्रिय विभूतिजी
अभिवादन !
उम्मीद है, स्वस्थ होंगे .
लम्बे समय से इस उधेड़बुन में था कि चन्द बातें आप तक किस तरह संप्रेषित करूं ? व्यक्तिगत मुलाकात संभव नहीं दिख रही थी, सोचा पत्र के जरिए ही अपनी बात लिख दूं. और यह एक ऐसा पत्र हो, जो सिर्फ हमारे आप के बीच न रहे बल्कि जिसे बाकी लोग भी पढ़ सकें, जान सकें. इसकी वजह यही है कि पत्र में जिन सरोकारों को मैं रखना चाहता हूं, उनका ताल्लुक हमारे आपसी संबंधों से जुड़े किसी मसले से नहीं है.
आप को याद होगा कि महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर आप की नियुक्ति होने पर मेरे बधाई सन्देश का आपने उसी आत्मीय अन्दाज़ में जवाब दिया था. उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश की पुलिस द्वारा एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की अनुचित गिरफ्तारी के मसले को जब मैंने आप के साथ सांझा किया तब आपने अपने स्तर पर उस मामले की खोज-ख़बर लेने की कोशिश की थी. हमारे आपसी संबंधों की इसी सांर्द्रता का नतीजा था कि आप के संपादन के अंतर्गत सांप्रदायिकता के ज्वलंत मसले पर केन्द्रित एक किताब में भी अपने आलेख को भेजना मैंने जरूरी समझा. इतना ही नहीं कुछ माह पहले जब मुझे बात रखने के लिए आप के विश्वविद्यालय का निमंत्रण मिला तब मैंने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया.
यह अलग बात है कि वर्धा की अपनी दो दिनी यात्रा में मेरी आप से मुलाक़ात संभव नहीं हो सकी. संभवतः आप प्रशासनिक कामों में अत्यधिक व्यस्त थे. आज लगता है कि अगर मुलाक़ात हो पाती तो मैं उन संकेतों को आप के साथ शेअर करता -जो विश्वविद्यालय समुदाय के तमाम सदस्यों से औपचारिक एवं अनौपचारिक चर्चा के दौरान मुझे मिल रहे थे- और फिर इस किस्म के पत्र की आवश्यकता निश्चित ही नहीं पड़ती.
मैं यह जानकर आश्चर्यचकित था कि विश्वविद्यालय में अपने पदभार ग्रहण करने के बाद अध्यापकों एवं विद्यार्थियों की किसी सभा में आप ने छात्रों के छात्रसंघ बनाने के मसले के प्रति अपनी असहमति जाहिर की थी और यह साफ कर दिया था कि आप इसकी अनुमति नहीं देंगे.
यह बात भी मेरे आकलन से परे थी कि सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबके से आने वाले एक छात्र- सन्तोष बघेल को विभाग में सीट की उपलब्धता के बावजूद शोध में प्रवेश लेने के लिए भी आंदोलन का सहारा लेना पड़ा था और अंततः प्रशासन ने उसे प्रवेश दे दिया था. विश्वविद्यालय की आयोजित एक गोष्ठी में जिसमें मुझे बीज वक्तव्य देना था, उसकी सदारत कर रहे महानुभाव की ‘लेखकीय प्रतिभा’ के बारे में भी लोगों ने मुझे सूचना दी, जिसका लुब्बेलुआब यही था कि अपने विभाग के पाठयक्रम के लिए कई जरूरी किताबों के ‘रचयिता’ उपरोक्त सज्जन पर वाड्मयचैर्य अर्थात प्लेगिएरिजम के आरोप लगे हैं. कुछ चैनलों ने भी उनके इस ‘हुनर’ पर स्टोरी दिखायी थी.
बहरहाल, विगत तीन माह के कालखण्ड में पीड़ित छात्रों द्वारा प्रसारित सूचनाओं के माध्यम से तथा राष्ट्रीय मीडिया के एक हिस्से में विश्वविद्यालय के बारे में प्रकाशित रिपोर्टों से कई सारी बातें सार्वजनिक हो चुकी हैं. अनुसूचित जाति-जनजाति से संबंधित छात्रों के साथ कथित तौर पर जारी भेदभाव एवं उत्पीड़न सम्बन्धी ख़बरें भी प्रकाशित हो चुकी हैं.
6 दिसम्बर 2009 को डॉ. अम्बेडकर परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित रैली में शामिल दलित प्रोफेसर लेल्ला कारूण्यकारा को मिले कारण बताओ नोटिस पर टाईम्स आफ इण्डिया भी लिख चुका है. उन तमाम बातों को मैं यहां दोहराना नहीं चाहता.
जनवरी माह की शुरूआत में मुझे यह भी पता चला कि हिन्दी जगत में प्रतिबद्ध पत्रकारिता के एक अहम हस्ताक्षर श्री अनिल चमड़िया- जिन्हें आप के विश्वविद्यालय में स्थायी प्रोफेसर के तौर पर कुछ माह पहले ही नियुक्त किया गया था- को अपने पद से हटाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन आमादा है.
फिर चंद दिनों के बाद यह भी सूचना सार्वजनिक हुई कि विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी परिषद की आकस्मिक बैठक करके उन्हें पद से मुक्त करने का फैसला लिया गया और उन्हें जो पत्र थमा दिया गया, उसमें उनकी नियुक्ति को ‘कैन्सिल’ करने की घोषणा की गयी.
मैं समझता हूं कि विश्वविद्यालय स्तर पर की जाने वाली नियुक्तियां बच्चों की गुड्डी-गुड्डा का खेल नहीं होता कि जब चाहें हम उसे समेट लें. निश्चित तौर पर उसके पहले पर्याप्त छानबीन की जाती होगी, मापदण्ड निर्धारित होते होंगे, योग्यता को परखा जाता होगा. यह बात समझ से परे है कि कुछ माह पहले आप ने जिस व्यक्ति को प्रोफेसर जैसे अहम पद पर नियुक्त किया, उन्हें सबसे सुयोग्य प्रत्याशी माना, वह रातों रात अयोग्य घोषित किया गया और उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका तक नहीं दिया गया ?
कानून की सामान्य जानकारी रखनेवाला व्यक्ति भी बता सकता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन का यह कदम प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के खिलाफ है. और ऐसा मामला नज़ीर बना तो किसी भी व्यक्ति के स्थायी रोजगार की संकल्पना भी हवा हो जाएगी क्योंकि किसी भी दिन उपरोक्त व्यक्ति का नियोक्ता उसे पत्र थमा देगा कि उसकी नियुक्ति –‘कैन्सिल’.
यह जानी हुई बात है कि हिन्दी प्रदेश में ही नहीं बल्कि शेष हिन्दोस्तां में लोगों के बीच आप की शोहरत एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की रही है, जिसने अपने आप को जोखिम में डाल कर भी साम्प्रदायिकता जैसे ज्वलंत मसले पर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने की कोशिश की. ‘शहर में कर्फ्यू’ जैसे उपन्यासों के माध्यम से या ‘वर्तमान साहित्य’ जैसी पत्रिका की नींव डालने के आप की कोशिशों से भी लोग भलीभांति वाकीफ हैं. संभवतः यही वजह है कि कई सारे लोग, जो कुलपति के तौर पर आप की कार्यप्रणाली से खिन्न हैं, वे मौन ओढ़े हुए हैं.
इसे इत्तेफाक ही समझें कि महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के समय से ही विवादों के घेरे में रहा है. चाहे जनाब अशोक वाजपेयी का कुलपति का दौर रहा हों या उसके बाद पदासीन हुए जनाब गोपीनाथन का कालखण्ड रहा हो, विवादों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा है. मेरी दिली ख्वाहिश है कि साढ़े तीन साल बाद जब आप पद भार से मुक्त हों तो आप का भी नाम इस फेहरिस्त में न जुड़े.
मैं पुरयकीं हूं कि आप मेरी इन चिंताओं पर गौर करेंगे और उचित कदम उठाएंगे.
आपका
सुभाष गाताडे
शनिवार, 6 फ़रवरी 2010
अनिल चमड़िया एक अनैतिक टीचर हैं: विभूति नारायण राय को जबाब
दरअसल एकपक्षीय रिपोर्टिंग इसे कहते हैं विभूति जी, क्या यह सच है कि आरोप वही लोग लगा रहे हैं जिनके स्वार्थ आपसे पूरे नहीं हो पाये तो क्या जो आपके साथ खड़े हैं उनके स्वार्थ पूरे हो चुके हैं या भविष्य में आप उन्हें पूरा करेंगे. जिन्दगी, संघर्ष और लड़ाईयां कई बार स्वार्थ से ऊपर उठकर भी लड़ी जाती हैं, इस तरह के खोखले तर्क निश्चिततौर पर दुनिया की जुझारु लड़ाईयों और लड़ने वालों के लिये भद्दे मजाक ही हैं. हिन्दी वि.वि. के मीडिया विभाग का रजिस्टर चेक कर लिजिये और छात्रों से पूंछ लिजिये क्या अनिल चमड़िया से अधिक और अच्छा क्लास किसी अध्यापक ने लिया है, पर आप छात्रों से पूंछने के नाम पर उनसे पूंछेगे जिन्हें स्टूडियो प्रभारी बनाने की बात या लेक्चरर बनाने की बात अनिल अंकित चला रहे हैं शायद......पर आपके कहने पर अनिल चमड़िया ने क्लास लेना शुरु किया इसको प्रस्तुत करने का आपका तरीका उनसे वाकई दुराग्रहपूर्ण लगता है. क्योंकि मामला क्लास लेने का नहीं था, मामला था कि क्लास, क्लासरूम में अनिल चमड़िया नहीं ले रहे थे और छात्रों को अपने चैम्बर में बुलाकर ४० मिनट के बजाय २ घंटे की क्लास लेते थे क्योंकि क्लास रूम में आवाज गूंजती थी. जिसपर छात्र तो खुश थे पर अनिल राय अंकित ने आपसे शिकायत की और कहा कि अनिल चमड़िया कक्षा में नहीं पढ़ाते. जिसे आप यहाँ प्रचारित कर रहे हैं क्योंकि आपके पास तर्क नहीं है. इसलिये आपकी दोनों बातें झूठी नहीं तो आधार विहीन हैं. निश्चित तौर पर जातिवादी कहने से आप जातिवादी नहीं हो जायेंगे, न ही महिला विरोधी कहने से महिला विरोधी पर आपके व्यवहार यह तय करेंगे कि आप क्या हैं. पिछले दिनों छात्रों की एक बैठक में कुछ छात्राओं ने कहा कि आप अश्लील शब्दों के साथ बात करते हैं इसलिये वे आपसे बात-चीत करने का जो कि छात्र प्रस्ताव रख रहे थे को वे छात्रायें मना कर रही थी. आपके कथन को ही वे दोहरा रही थी कि छात्र तुम लोगों को टाफी समझते हैं. तुम्हारी स्वतंत्रतायें छात्रावासों के कमरे तक ही सीमित क्यों है? व अन्य अन्य.
गाली गलौज की भाषा में ब्लाग या कहीं भी बात करना गलत है पर अब तक अनिल चमड़िया और आपसे जुड़े इस विवाद में जितने प्रकाशन हुए हैं उनकी टिप्पणियों पर यदि शोध किया जाय तो आपके पक्ष में खड़े ज्यादातर लोगों की भाषा निहायत गंदी रही है. क्या यह पक्षधरता समरूपी चेतना का परिचायक नहीं है या फिर यह भी कहा जा सकता है कि आपकी तरफ से जो लोग लामबंद हुए हैं वे बेहद स्तर विहीन तरीके से सामने आये हैं, तो एक बार जरूर सोचना चाहिये कि ये कौन लोग हैं जो पूरे बहस को कुचर्चा में बदलना चाहते हैं क्योंकि इस पर एक स्वस्थ बहस हो इससे आपको भी एतराज न होगा. आपने ब्लाग माडरेटरों से सवाल किया कि सम्पादक के रूप में वे किसी दलित को क्यों नहीं रख लेते? इसका क्या आशय लगाया जाय क्या यह कि मसले से महत्वपूर्ण जातियां हैं. मैं आपको आपके विश्वविद्यालय का एक आंकड़ा देता हूं जिसे मैंने कहीं पढ़ा है इसलिये अगर वह स्रोत गलत हो तो मुझे क्षमा कीजियेगा आपके विश्वविद्यालय में एक मात्र छात्रावास है जिसका नाम सावित्री बाई फुले के नाम पर है, आपके वि.वि. में एक मात्र अस्पताल है जो अम्बेडकर के नाम पर है, आपके वि.वि. में अम्बेडकर जनजातीय अध्ययन जैसे विभाग चलते हैं, आपके वि.वि. में छात्रों की कुल संख्या २४७ है जिसमे १०० से अधिक अम्बेडकर स्टूडेंट फोरम के सदस्य है, यानि दलित छात्र बहुलता में हैं और आपके विश्वविद्यालय में ही एक माह तक दलित छात्रों को आंदोलन करना पड़ता है और न्याय नहीं मिल पाता, आपके द्वारा ही दलित अध्यापक को अम्बेडकर परिनिर्वाण दिवस की रैली में भाग लेने पर धमकाया जाता है, जो आस्थायी नियुक्तियां आपने की हैं उसमे एक भी दलित शामिल नहीं है.
ये दस्तावेज आप पढ़ सकते हैं
१- सुनो विभूति, तुम सेकुलर जातिवादी हो
आपका पूर्व और सकारात्मक कार्यों का अब भी प्रसंसक छात्र.
विभूति नारायण राय......Unscrupulous …है.. - नामवर सिंह
प्रिय काशी,