शनिवार, 30 जनवरी 2010

सनातन सिस्टम में भी फैसला करने का अधिकार पण्डितों व भूमिहारों के हाथ में था- विजय प्रताप

विजय प्रताप राजस्थान पत्रिका के पत्रकार हैं.
अनिल चमड़िया एक 'इडियट' टीचर है। ऐसे 'इडियट्स' को हम केवल फिल्मों में पसंद करते हैं। असल जिंदगी में ऐसे 'इडियट' की कोई जगह नहीं। अभी जल्द ही हम लोगों ने 'थ्री इडियट' देखी है। उसमें एक छात्र सिस्टम के बने बनाए खांचे के खिलाफ जाते हुए नई राह बनाने की सलाह देता है। यहां एक अनिल चमड़िया है, वह भी गुरू शिष्य परम्परा की धज्जियां उड़ाते हुए बच्चों से हाथ मिलाता है, उनके साथ एक थाली में खाता है। उन्हें पैर छूने से मना करता है। कुल मिलाकर वह हमारी सनातन परम्परा की वाट लगा रहा है। महात्मा गांधी के नाम पर बने एक विष्वविद्यालय में यह प्रोफेसर एक संक्रमण की तरह अछूत रोग फैला रहा है। बच्चों को सनातन परम्परा या कहें कि सिस्टम के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहा है। दोस्तों, यह सबकुछ फिल्मों में होता तो हम एक हद तक स्वीकार्य भी कर लेते। कुछ नहीं तो कला फिल्म के नाम पर अंतरराश्ट्ीय समारोहों में दिखाकर कुछ पुरस्कार-वुरस्कार भी बटोर लाते। लेकिन साहब, ऐसी फिल्में हमारी असल जिंदगी में ही उतर आए यह हमे कत्तई बर्दाश्त नहीं। 'थ्री इडियट' फिल्म का हीरो एक वर्जित क्षेत्र (लद्दाख) से आता था। असल जिंदगी में यह 'इडियट' चमड़िया (दलित) भी उसी का प्रतिनिधित्व कर रहा है। ऐसे तो कुछ हद तक 'थ्री इडियट' ठीक थी। हीरो कोई सत्ता के खिलाफ चलने की बात नहीं करता। चुपचाप एक बड़ा वैज्ञानिक बनकर लद्दाख में स्कूल खोल लेता है। लेकिन यहां तो यह 'इडियट' सत्ता के खिलाफ भी लड़कों को भड़काता रहता है। हम शुतुमुर्ग प्रवृत्ति के लोग सत्ता व सनातन सिस्टम के खिलाफ ऐसी बाते नहीं सुन सकते।सो, साथियों हमारे ही बीच से महात्मा गांधी अंतरराश्ट्ीय हिंदी विष्वविद्यालय के कुलपति या यूं कहें कि सनातन गुरुकुल परम्परा के रक्षकद्रोणाचार्य के अवतार वी एन राय साहब ने इस परम्परा की रक्षा का बोझ उठा लिया है। वह अपनी एक पुरानी गलती (जिसमें कि उन्होंने छात्रों के बहकावे में आकर चमड़िया को प्रोफेसर नियुक्त करने की भूल की) सुधारना चाहते हैं। राय साहब को अब पता चल गया है कि गलती से एक कोई एकलव्य भी उनके गुरुकुल में प्रवेश पा चुका है। दुर्भाग्यवश अब हम लोकतंत्र में जी रहे हैं (नहीं तो कोई अंगुली काटने जैसा ऐपीसोड करते) इसलिए चमड़िया को बाहर निकालने के लिए थोड़ा मुष्किल हो रहा है। तब एकलव्य के अंगुली काटने पर भी इतनी चिल्ल-पौं नहीं मची थी जितने इस कथित लोकतंत्र में कुछ असामाजिक तत्व कर रहे हैं। राय साहब आपके साथ हमें भी दुख है कि इस सनातन सिस्टम में लोकतंत्र के नाम पर ऐसे चिल्ल-पौं करने वालों की एक बड़ी फौज तैयार हो रही है। आपने ‘साधु की जाति नहीं पूछने वाली’ मृणाल पाण्डे जी के साथ अपने ऐसे इडियटों को सिस्टम से बाहर करने का जो फैसला किया है, वो अभूतपूर्व है। इसी इडियट ने हमारी मुख्यधारा की मीडिया के सामने आइना रख दिया था, जिसकी वजह से हमें कुछ दिनों तक आइनों से भी घृणा होने लगी थी। हम आइनें में खुद से ही नजर नहीं मिला पा रहे थे। वो तो धन्य हो मृणाल जी का जिन्होंने "साधु को आइना नहीं दिखाना चाहिए उससे केवल ज्ञान लेना चाहिए" का पाठ पढाया.
ठीक ही किया जो अपने विष्णु नागर जैसे छोटे कद के आदमी को मृणाल जी व खुद के समकक्ष बैठाने की बजाए उनका इस्तीफा ले लिया। हमारे सनातन सिस्टम में सभी के बैठने की जगह तय है। उसे उसके कद के हिसाब से बैठाना चाहिए। मृणाल जी की बात अलग है। वो कोई चमाइन नहीं, पण्डिताइन हैं, उनका स्थान उंचा है। सनातन सिस्टम में भी फैसला करने का अधिकार पण्डितों व भूमिहारों के हाथ में था, आप उसे जिवित किए हुए हैं हिंदू सनातन धर्म को आप पर नाज है।साहब आप तो पुलिस में भी रहे हैं। हम जानते हैं कि आपको सब हथकंडे आते हैं। एक और दलितवादी जिसका नाम दिलीप मंडल है आप की कार्यषैली पर सवाल उठा रहा है। कहता है कि आपने एक्जिक्यूटिव कांउसिल से चमड़िया को हटाने के लिए सहमति नहीं ली। उस मूर्ख को यह पता ही नहीं की द्रोणाचार्य जी को एकलव्य की अंगुली काटने के लिए किसी एक्जिक्यूटिव कांउसिल की बैठक नहीं बुलानी पड़ी थी। आप तो फैसला "आन द स्पाट" में विश्वाश करते हैं। सर जी, यह तो लोकतंत्र के चोंचले हैं। और आप तो पुलिस के आदमी हैं, वहां तो थानेदार जी ने जो कह दिया वही कानून और वही लोकतंत्र है। लोग कह रहे हैं, साहब कि जिस मिटिंग में चमड़िया को हटाने का फैसला हुआ उसमें बहुत कम लोग थे। उन्हें क्या पता कि जो आये थे वह भी इसी शर्त पर आए थे कि सनातन सिस्टम को बचाए रखने के लिए सभी राय साहब को सेनापति मानकर उनका साथ देंगे। जो खिलाफ जाते आप ने बड़ी चालकी से उन्हें अलग रख दिया। वाह जी साहब, इसी को कहते हैं सवर्ण बुद्धि। आप वहां हैं तो हमें पूरा भरोसा है कि वह विष्वविद्यालय सुरक्षित (और ऐसे भी साहब जहां पुलिस होगी वहां सुरक्षा तो होगी ही) हाथों में है। साब जी, हमने गांव के छोरों से कह दिया है - यह लंठई-वंठई छोड़ों। इधर-उधर से टीप-टाप कर बीए, ईमे कर लो। बीयेचू चले जाओ, कोई पंडित जी पकड़ कर दुई चार किताबे टीप दो। फिर तो आप हईये हैं। एचओडी नहीं तो कम से कम प्रुफेसर-व्रुफेसर तो बनवाईये दीजिएगा। और साहब हम आपके पूरा भरोसा दिलाते हैं यह लौंडे 'अनिल चमड़िया' जैसा इडियट नहीं 'अनिल अंकित राय' जैसा चतुर बनकर आपका नाम रौशन करेंगे।
नई पीढ़ी ब्लाग से साभार

2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रगतिशीलता का सम्बन्ध मात्र विचार से नहीं बल्कि वह संस्कारों से भी जुड़ती है। इसीलिए मध्यवर्ग से आने वाले के लिए यह जरूरी है कि वे विचार के स्तर ही प्रगतिशीलता को न अपनाए बल्कि उनके संस्कारों में, व्यवहार, आचरण में भी प्रगतिशीलता आए। हिन्दी-उर्दू पट्टी में ब्राहमणवाद-सनातनी विचार बहुत गहरे हैं,, इसलिए बौद्धिकों से मात्र वैचारिक प्रतिबद्धता जरूरी नहीं। उनकी मानसिकता में भी बदलाव जरूरी है। यह कठिन प्रक्रिया है। मअहिवि में उठे सवालों से यही सच्चाई सामने आती है।

    - कौशल किशोर

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  2. प्रगतिशीलता का सम्बन्ध मात्र विचार से नहीं बल्कि वह संस्कारों से भी जुड़ती है। इसीलिए मध्यवर्ग से आने वाले के लिए यह जरूरी है कि वे विचार के स्तर ही प्रगतिशीलता को न अपनाए बल्कि उनके संस्कारों में, व्यवहार, आचरण में भी प्रगतिशीलता आए। हिन्दी-उर्दू पट्टी में ब्राहमणवाद-सनातनी विचार बहुत गहरे हैं,, इसलिए बौद्धिकों से मात्र वैचारिक प्रतिबद्धता जरूरी नहीं। उनकी मानसिकता में भी बदलाव जरूरी है। यह कठिन प्रक्रिया है। मअहिवि में उठे सवालों से यही सच्चाई सामने आती है।

    - कौशल किशोर

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